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समय देशना - हिन्दी
बढ़ता है। ऐसे ही आगमज्ञान से, आगमज्ञान बढ़ता | एक ग्रन्थ के ज्ञान से अनेक ग्रन्थ का ज्ञान होता है। तत्वार्थ सूत्र में प्रमाण दो प्रकार का है प्रत्यक्ष व परोक्ष । उपात्य, अनुपात्य दो प्रकार से प्रवर्त्तमान होता है। जहाँ इन्द्रिय, मन आदि का संयोग नहीं चाहिए, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। जहाँ पर की सहायता नहीं है, वहाँ प्रत्यक्ष है, और पर सापेक्ष को लिए है, वही परोक्ष है। जो ज्ञान आपको है, उसके लिए पर का आलम्बन नहीं लेना पड़ता । जो ज्ञान आपको नहीं है, उसके लिए पर का आलम्बन लेना पड़ता है ।
ज्ञान में आनंद है, कि नहीं ? ज्ञान का होना सुख है, नहीं होना दुख है। यह पेन है। इस पेन को यदि कोई चुरा कर ले जाता है और चुराने वाला दिख जाये, कि ये ले जा रहा है, और आपने देख लिया, कि उसने कहाँ रखा है तो आप सत्य बताना, आपको पेन चोरी का दुःख होगा क्या ? नहीं होगा, क्योंकि आपको मालूम है, कि वहाँ रखा है, मैं अभी उठा लेता हूँ। पेन चुराया नहीं गया। आप लिख रहे थे, तो वही खो गया। आपको लिखना है । नहीं मिला तो आप ढूँढते हो । दुःख हुआ, कि नहीं? पेन आपके पास ही बिस्तर पर था, पर आपको मिल नहीं रहा था, तब आप दुःखी हो रहे थे। क्योंकि पेन का रखा होने का ज्ञान नहीं है । अज्ञान दुख है, ज्ञान सुख है । जितना अज्ञान होगा, उतना अज्ञानमय जीवन होगा। और जितना ज्ञान हो जायेगा, उतना ज्ञानमय जीवन होगा । अनुद्घाटित ज्ञान जिस दिन हो जायेगा, उस दिन परम सुखी हो जायेगा। सामायिक में तत्त्व का वेदन किया करो। अज्ञान दुःख है। मेरे लिए ज्ञान नहीं, इसलिए जगत के पीछे भटकना पड़ता है। जिस दिन मेरा मेरे में ज्ञान हो जायेगा उस दिन, ज्ञानी ! निज ध्रुव ज्ञायकभाव का अनुभव हो जाएगा, फिर वन्ध-वंदक भाव का भी अभाव हो जायेगा। तीर्थंकर कभी किसी मंदिर जाते नहीं हैं, उनके नाम के मंदिर बनते हैं। पर जब तक तेरा तुझे ज्ञान न हो जाये, तब तक मंदिर जाना बंद मत कर देना ।
मुनिराज मंदिर में वंदना करने आये, यह तो मिलेगा आपको ग्रन्थ में; पर मुनिराज मंदिर में तपस्या कर रहे थे, यह नहीं मिलेगा। तपस्या जंगल में करने जाते हैं। यदि मेरे में मैं मिल जाता, तो जंगल में प्रतिमा लेकर नहीं जाना पड़ता। वह स्वयं केवली भगवान होते हैं। तीर्थंकर भगवान किसी को नमस्कार नहीं करते। पर आप तीर्थंकर नहीं हो, भगवान नहीं हो, अतः आप नमस्कार करना मत छोड़ देना । वे स्वयम्भू होते हैं । वे धर्मोपदेश भी नहीं देते। जब तक सत्य को जाना नहीं, पहचाना नहीं, तब तक तुम जो भी कहोगे, वह असत्य हो जायेगा । इसलिए भगवान सत्य का पहले साक्षात्कार करते है; फिर व्याख्यान करते हैं। केवल ज्ञान होने के बाद ही वे बोलते हैं। सत्य का दर्शन करने के बाद बोलते है; पहले नहीं बोलते, क्योंकि वह प्रमाणिक पुरुष हैं। प्रमाणिक पुरुष कम बोलते हैं ।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
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आत्मा तरंग स्वभावी है, आत्मा में जो तरंग शब्द का प्रयोग है, वहाँ कौन सी तरंग ग्रहण करना? जो निज स्वभाव-भाव की लहरें उठ रही हैं, वे तरंगे ग्रहण करना, न कि ये तरंग ग्रहण करना । परम तेजभूत ये आत्मा, फिर भी निस्तेज है। परम चमकने वाली आत्मा, फिर भी चमक नहीं रही है । ४७ (सैतालीस) शक्तियों पर ध्यान दो । वे सैंतालीस शक्तियाँ इस ग्रन्थ के अन्त में हैं । इन शक्तियों का व्याख्यान होगा, तब वेदन करना । ये है शुद्ध समयसार ।
चार निक्षेप की चर्चा कर रहे थे नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। आज द्रव्यनिक्षेप को देखें । वर्तमान में जो पर्याय नहीं है, भविष्य में जो पर्याय होगी, भूत में जो पर्याय थी, उनको वर्तमान में वैसा कहना, यह
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