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समय देशना - हिन्दी
२५४ अनेक धर्मात्मक होता है। और जो अनंतधर्म हैं, वह नय हैं। इसलिए उसका नाम अनेकान्त है। अनेकान्त की भाषा का व्याख्यान मत करना जाने बिना। ध्यान रखना, सारे विश्व में बिना अनेकान्त के कुछ होता नहीं है। जो नास्तिक हो जो भारतीय भी न हो, वह अनेकान्त के अनुसार ही जी पायेगा। उसके पास एकान्त का जन्म होता नहीं है। जो संबंध है, वह नय है; जिसमें संबंध है, वह प्रमाण है। जो भी सत्ता है, वह प्रमाण है,
और सत्ता का व्याख्यान है नय । पर अपेक्षा से, राम पिता है । पुत्र है, भाई है, कौशल्या की अपेक्षा पुत्र है, लवकुश की अपेक्षा पिता है, लक्ष्मण की अपेक्षा भाई है, दशरथ की अपेक्षा बेटा है। पर राम तो एक है । मैं एक हूँ, मेरी अनेक अवस्था को आप निहार सकते हैं । यहाँ अध्यात्म बोलता हैं, कि मैं तो एक ही हूँ, मेरा एकीभाव है । जीव मुझे अपना-अपना मान कर संतुष्ट हो रहे है । दु:खी हो रहे हैं। पर मैं न किसी का दु:खकर्ता हूँ, न सुखकर्ता हूँ। जीव अपने संबंधों से सुख-दुख भोग रहा हैं । मैं तो एक हूँ। किसी ने मुझे बेटे के रूप में निहारा, किसी ने साधु के रूप में निहारा, किसी ने शिष्य के रूप में निहारा । किसी ने गुरु के रूप में निहारा, आप निहारो, आपकी आँख है, पर मैं तो एक हूँ | चित्चमत्कार की अनुभूति जो है, सत्ता में लवलीन होती है, जो अनेक धर्मों को गौण करके एक धर्म की ओर जाती है। जब भी चिन्तन करेगा, चिन्तन में से ही होगा। लेकिन जो अखण्डध्रुव ज्ञायकभाव है, वह प्रमाणभाव है। मैं ज्ञाता हूँ, मैं दृष्टा हूँ। यह प्रमाण नहीं बोल रहा, यह नय बोल रहा है। मैं तो मैं ही हूँ। "जो सो दू सो चैव।" प्रमाण है। नय पर सापेक्ष है। नय शब्द को लेकर चल रहा है, नय बोलता है। जो बोलता है, वह पूरा नहीं होता। तोता पिंजरे में क्यों? क्योंकि वह अधिक बोलता है, और इतना ज्यादा बोलता है, कि पुरुष की आवाज में बोल लेता है। पर की नकल कर लेता है, तो पिंजरे में होता है। जो परभाव की नकल करते हैं, वे पिंजरे में होते हैं। जो पर का बोलना बन्द करते हैं, वे स्व में होते हैं। वे कर्म पिण्ड से रहित होते है। विजातीय भाषा छोड़ दो, विजातीय चिन्तन छोड़ दो, देखना छोड़ दो,अनुभव करना छोड़ दो, यही परमध्यान है।
ग्लास पकडे है और कहता है कि ग्लास गर्म है, जबकि दध गर्म था। ग्लास गर्म है, हाथ जल रहा है, दूध पीना चाहता है, बताओ किसे छोड़े? हाथ बचाना है तो ग्लास छोड़ना पड़ेगा और ग्लास छूटेगा, तो दूध भी छूट जायेगा। अब प्रज्ञा का प्रयोग करो, जिससे ग्लास भी न छूटे, और दूध भी न जाये, अत: उसको ठण्डा करने का पुरुषार्थ करो। इसलिए प्रमाण से, नय से और निक्षेप से, इन तीन के माध्यम से यह उद्योतमान भगवती आत्मा को जाना जाता है। यह सामान्य संस्कृत नहीं है, आचार्य अमृतचन्द्र की संस्कृत है, जो आसानी से अर्थ नहीं निकलता।
जो निश्चय से अभूतार्थ है, वह भी भूतार्थ है। तेरी माँ, तेरी पत्नी नहीं है। पत्नी के संबंध की अपेक्षा से माँ असत्य है, परन्तु माँ तो माँ है, माँ सत्य है लोक व्यवहार है, पर कथन नहीं है। आप सभी भेद करना जानते हो। नीम की पत्ती है, रोटी नहीं है, अभूतार्थ है। प्रयोजनभूत है, जिसको चर्म रोग हो गया है, उसके लिए भूतार्थ है। नीम की पत्ती सत्य भी है और असत्य भी है।
एक पत्रकार विदिशा में आये बोले- मैं जैनदर्शन के अनेकान्त स्यादवाद को नहीं समझता । मैंने कहा, तुम समझते हो, पर कह नहीं पाते । बोला, कैसे ? जैसे ही एक प्रश्न किया, मैंने कहा, ऐसा है क्या? बोले हाँ । मैंने कहा ऐसा नहीं है क्या? बोले हाँ । मैंने कहा, यही है स्याद्वाद अनेकान्त । है और नहीं के बीच जो है, वही तो है प्रमाण । स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति । स्याद अस्ति यानि है स्याद नास्ति यानी न । कौन? प्रमाण अस्ति, नास्तिरूप है । प्रमाण शाश्वत है। प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार का है। ज्ञान से ज्ञान
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