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समय देशना - हिन्दी पाते, इसलिए उसका बोध नहीं है। ग्रन्थ से समयसार नहीं आया। समयसार ग्रन्थ निर्ग्रन्थों की तत्त्वानुभूति है। यह ग्रन्थ का ज्ञान नहीं है, यह निर्ग्रन्थों की अनुभूति है जो आचार्य कुन्दकुन्द देव ने लिखी है। इसलिए 'चुक्कं छलं न घेतव्यं'; चूक में छल ग्रहण मत करना । जो एकत्वविभक्त स्वभाव है, वह आगम से, स्वानुभव से, गुरू परम्परा से, तीन से जानो। तत्त्व की प्रमाणिकता सर्वज्ञ की वाणी, गुरुमुख और स्वानुभव ये तीन को लेकर जो व्याख्यान करेगा, वह अप्रमाणिक व्याख्यान नहीं कर पायेगा। तीन बातें लेकर चलना। आगम, स्वानुभव, गुरुपरम्परा ।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता ऐसा नहीं है । एक द्रव्य पररूप द्रव्य नहीं होता। परन्तु एकद्रव्य पर द्रव्य का निमित्त रूप कर्ता है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे है यह चिद ज्योति को प्रमाण और नय से आप समझें । एकत्व रूप से प्रकाशमान / ज्योतिर्मय जो आत्मा है, उसको जानने का उपाय क्या है। अब यहाँ किसी भिन्न ज्ञेय की चर्चा नहीं करेंगे, भिन्न प्रमेय की चर्चा नहीं करेंगे। शरीर को नहीं देखना, शरीर की पुष्टि करनेवाले द्रव्यों को नहीं देखना । जो ज्योर्तिमयी, जिससे शरीर चल रहा है, उस आत्म तत्व को निहारना, यही ज्योर्तिपुंज है, उद्योतमान है आत्मा । उस उद्योतमान आत्मा में जाने के लिए उपाय क्या है? अब प्रारंभ हो रहा है तत्व । जब तक उपाय का ही ज्ञान नहीं है, तो उपादेय तेरा क्या होगा? मैं रस चख रहा हूँ। रस प्राप्ति का उपाय ही मुझे मालूम नहीं है, फिर क्या चलूँगा? हर वस्तु का उपाय तो होता है। उस वस्तु का उपाय यानि पुरुषार्थ । जब बाहर का उपाय समाप्त हो जायेगा, तब अन्दर का उपाय प्रारंभ होगा। या यूँ कहें, उपाय करना आप छोड़ दें, वही उपाय है, जो इन्द्रिय सुख का उपाय करता रहता है, उसे इस उपाय का त्याग हो जाये, यही परम उपाय है।
ऊँची अवस्था को जानना भी पसन्द नहीं करते, यह बहुत बड़ी भूल है। ऊँचे मार्ग को जानोगे नहीं, तो पहचानोगे कैसे? इस ग्रन्थ को सुनने से भ्रम नहीं आता है, भ्रम जाता है। जब तक जानोगे नहीं, तब तक पहचानने का पुरुषार्थ कैसे करोगे? सत्यार्थ क्या है यह जानना चाहिए कि नहीं जानना चाहिए? तत्त्वज्ञान, तत्त्व निर्णय, तत्त्वश्रद्धान, इसके बाद तत्त्वानुभवन । यह ऐसे सत्य हैं, जो लोक में प्रचलित नहीं हैं, इन्हें जीव सुनता है। वह सोचता है कि क्या है? तत्त्वज्ञान के बाद सम्यकज्ञान। इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र निहित है, यदि आप खोजना चाहो, उस भगवती आत्मा को, जानने का उपाय क्या है, तो प्रमाण नय निक्षेप। जिसे प्रमाण का बोध नहीं, नय का बोध नहीं, निक्षेप का बोध नहीं, वह समयसार को क्या जानेगा?
ज्ञानी ! ध्यान दो, यह ध्रुव सत्य है जो हमारे पुराने लोग कहते आये न, किसमयसार नहीं पढ़ो। इसका कारण क्या था ? जब तक प्रमाण, नय, निक्षेप का ज्ञान नहीं हैं, तब तक तत्व का निर्णय कैसे करोगे? इसलिए निषेध करते थे। प्रमाण को जानना है, तो प्रमाण, नय, निक्षेप पर जो ग्रन्थ हैं, इन तीन का ज्ञान अनिवार्य है।
'विश्वतत्त्व प्रकाश' आचार्य भावसेन स्वामी का ग्रंथ है, जो कातंत्र व्याकरण के टीकाकार हैं । त्रिविधाचार थे, तीन वेद के ज्ञाता थे। शब्दागम, तांगम, परमागम के ज्ञाता थे। शब्दागम यानी व्याकरण शास्त्र, तर्कागम यानी न्यायशास्त्र, परमागम यानी सिद्धांत शास्त्र। ऐसे तीन वेदों के ज्ञाता आचार्य भावसेन स्वामी ने "विश्व तत्त्वप्रकाश'' में विश्व के सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित किया है। ऐसा आलोकित ग्रन्थ है,, जिस ग्रन्थ में प्रमाण, नय, निक्षेप का व्याख्यान है। प्राचीन ग्रन्थ है। जो वस्तु के सकल अंश का कथन करे वह प्रमाण कहलाता है। जो वस्तु के एक अंश का कथन करे, वह नय कहलाता है। प्रमाण एक होता है, Jain Education International
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