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समय देशना - हिन्दी
२५२ विषय भी उत्कृष्ट चाहिए है यही कारण है कि चार अनुयोगों में द्रव्यानुयोग को अंत में रखा और उसकी गहनतम शिक्षा को भी किसी भी अनुयोग के ग्रंथ में नहीं लिखा, कि इतने ग्रन्थ पढ़ने के बाद यह अनुयोग पढ़ना चाहिए। परन्तु इस द्रव्यानुयोग के लिए स्पष्ट समझना, इसको पढ़ने से पहले श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, सर्वार्थ सिद्धि, परीक्षामुख, न्याय दीपिका और गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवकाण्ड इतने ग्रन्थों का अध्ययन करना अनिवार्य है । जब तक आलाप की पद्धति आलापपद्धति का ज्ञान नहीं है, तब तक इस ग्रन्थ का व्याख्यान क्या होगा? सत्य भी असत्य है, असत्य भी सत्य है, ऐसा विषय आगे आने वाला है।
आप पाप की सत्ता स्वीकार नहीं करोगे तो पुण्य की सत्ता कैसे घटित होगी? राक्षसों को स्वीकार करोगे, तभी आप आर्य पुरुषों की सिद्धि स्वीकार कर पाओगे अन्यथा आर्य की सिद्धि क्या होगी? शीलवन्ती नारी की पहचान शीलवन्ती नारी नहीं कराती, शील की पहचान कुशील से ही होती है। यह उनसे भिन्न है। राम के महत्त्व को राम ने नहीं बढ़ाया, विश्वास रखना। सभी राम होते तो विशेष कौन होता? राम के महत्त्व को रावण ने बढ़ा दिया । राम सत्य है, तो क्या रावण सत्य नहीं है ? राम सत्य है, तो रावण भी सत्य है। लेकिन राम का आचरण सत्य है। परन्तु रावण का आचरणशून्य है। भूतार्थ अभूतार्थ है, अभूतार्थ भी भूतार्थ है। निश्चय भूतार्थ है, तो व्यवहार भी भूतार्थ है। गिलास पकड़ने के लिये गिलास नहीं पकड़ा जाता । दूध पीने के लिये गिलास पकड़ना पड़ता है । पर वह भी सत्य है कि गिलास को पकड़े है, दूध को नहीं पकड़े। निश्चय कहेगा कि दुग्ध के राग में पहले गिलास को ही पकड़ा जाता है। समझ में आ रहा है ? तपस्या के लिए तपस्या नहीं करनी पड़ती है। तपस्वी बनने के लिए भी तपस्या नहीं की जाती । कर्म काटने के लिए तपस्या करना चाहिए । कर्म काटने का पुरुषार्थ तपस्या है । तपस्या नाम का कोई पुरुषार्थ नहीं है। बिना तपस्या किये कर्म कटते नहीं हैं। कर्म काटने के लिये पुरुषार्थ नहीं करना चाहिए, भगवान बनने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। जब भगवान् बनने का पुरुषार्थ करेगा, तो कर्म स्वयं कट जायेंगे । आपको एकसाथ दो नय दिख रहे हैं। जो जीव प्रज्ञा विहीन हैं, वे एक नय का अभाव करके कथन कर लेते है; पर ध्रुव सत्य है कि दो नय एक साथ चलेंगे। व्याख्यान भले एक का होगा, पर दोनों का कार्य युगपत् होगा। दूध जब पी रहे होगे, तो उस समय बर्तन भी मुख में होगा। कोई कुतर्क करे कि बर्तन नहीं है मुख में, आपके दिगम्बर मुनि बर्तन तो लेते नहीं है, वे दूध पीते है अरे ! उनके 'पाणिपात्र' संज्ञा कहाँ से आ गई ? पात्र यानी बर्तन । जब भी मुख में डालोगे, तो किसी न किसी बर्तन से ही डालोगे। पात्र होगा न? दो क्रियाएँ एक साथ चलती हैं पीना चल रहा है, जिसमें रखा है वह भी साथ में है। तीसरी बात यह बताओ कि पीने के लिए दूध पिया जाता है, कि स्वाद लेने के लिए दूध पिया जाता है ? जब आप पीते हैं, तो उसमें यह बताओ, जिसे आप कहते हो वह क्या होता है ? जब पीते है; जब वह होता है, तो क्या होता है ? पीते-पीते जो अनुभूति चल रही है, वह स्वाद है। जो निश्चय है, वह अवक्तव्य है। और जो पी रहे हैं, वह दुनियाँ कहती है। स्वाद ले रहे, यह कोई नहीं कहता। पीना व्यवहार, स्वाद लेना निश्चय है । तो जिस समय जो क्रिया है, उस समय अनुभूति भी वैसी होती है। बिना अनुभूति के क्रिया होती नहीं है और अनुभूति स्वयं क्रिया होगी. तो क्रिया करेगा कौन? एक बालक रेत में घरघूले बना रहा था, उसे उसमें आनंद आ रहा था। अगर नहीं आता ,तो बनाता क्यों? घरघूला बनाने में बालक को सुख आ रहा है, सुख का वेदन कर रहा है। तो निज घर के घरघूले में कितना आनंद होगा ! यह निश्चय स्वरूप है। यह है तत्वदृष्टि । अंतर इतना ही है कि जगत क्रिया में लीन होता है और ज्ञानी तत्व की क्रिया के बोध को प्राप्त होता है। जो मैं कह रहा हूँ वैसा आप सब करते हो, पर आप ज्ञान के साथ नहीं कर
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