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________________ समय देशना - हिन्दी २५० के पलक को उठाकर भी नहीं देखा। जैसे ही माँ बेटी को लेकर आगे बढ़ती है। डाकुओं के गिरोह ने घेर लिया। जितने आभूषण जेवरात थे, सब लूट लिये। इतने में सरदार बोले, देखो मैंने सुबह कहा था न, कि निर्ग्रन्थ साधु के दर्शन करने से लाभ होता है । माँ ने जैसे ही सुना, कि निर्ग्रन्थ साधु के दर्शन करने से लाभ होता है। यानी मेरे बेटे को पता था, कि जंगल में डाकू हैं। बोली धिक्कार हो मेरी कोख को, जिसे मैंने नौ महिने रखा, उसने अपनी माँ व बहिन की रक्षा नहीं की। सरदार से बोली आप अपनी कटार दो । सरदार बोला क्यों? मुझे अपनी कोख को अलग करना है। जिस साधु की बात कर रहे हो, वह मेरा पुत्र है। मैंने उससे पूछा था कि जंगल में कोई डाकू तो नहीं है, तो उसने बताया नहीं। इस गंदी कोख को मैं चीरना चाहती हूँ। डाकुओं के सरदार ने हीरे-जवाहरात सब माँ के चरणों में रख दिये, और चरणों में लेट गया, माँ ! आप सब ले लो, मुझसे और ले लो और आपके चरण छू लेने दो, जिन चरणों के तले एक आचरणवान् योगी बना हो। आपकी कोख धन्य है, जिस कोख से ऐसा पुत्र जन्मा हो, जहाँ उसे माँ-बहिन से भी राग नहीं है। ये ही तो मुनिराज हैं। आपको अब जंगल से मैं पार कराऊँगा । यह अब मेरी बहिन है। यह है समयसार | ग्रंथ का समयसार कोई भी पढ़ लेगा, पर हृदय पवित्र नहीं होगा, तो चारित्र में शुद्धि नहीं होगी और चारित्र शुद्धि के अभाव में चारित्रवान् को ही हीन भावना से देखता है। और जब चारित्र पर आस्था बढ़ जाती है , तो किसी को हीन दृष्टि से नहीं देखता। ऐसे होना चाहिए मुनिराज । वे मुनिराज धन्य हैं जो अपनी भगिनी की बिडम्बना देखकर भी अपने निज स्वरूप से च्युत नहीं हुए। अब लगाना एकत्व विभक्त शुद्ध स्वरूप । यही शुद्धात्मा है, यही सम्यक्त्व आत्मा है, यही सम्यक्ज्ञान आत्मा है, यही सम्यक् चारित्र आत्मा है। हे ज्ञानी ! तू क्या वेदन कर रहा है ? जो वेदन कर रहा है, वह कौन-सी इन्द्रिय का भोग चल रहा है ? बिना इन्द्रिय के भोग रहे हो, फिर अनुभूति अन्दर चल रही है, कि नहीं? अच्छा यह बताओ कि किसी को एक घडा मकान बनाते समय मिल गया, उस सोने-जवाहरात से भरे घड़े को चौराहे पर रखकर देखेगा क्या ? नहीं देखेगा। उसे तो कमरे के अन्दर कमरे में ताला डालकर देखेगा। वह अनुभूति कैसी रही, उसे क्या सभी को बतायेगा? वह बाजार में भी पहुँच जायेगा, परन्तु वह किसी को बतायेगा नहीं। वह बाजार में तो होगा, पर उसका मन घड़े के पास ही होगा । हे ज्ञानी ! इस आत्मा के अन्दर रत्नत्रय के तीन रत्न हैं, यह जिसे प्राप्त हो जायें, तो स्वानुभूति वचनों का विषय नहीं, मन्द-मन्द मुस्कराने का विषय है। तो कैसे मुनि बनना है ? वे जिन्होंने माँ-बहिन को भी नहीं देखा, ध्यान में लीन रहे । सम्यक् ही आत्मा है, आत्मा ही सम्यक् है । कब होगा? वस्तु, स्वतंत्र, परभावों से विपर्यास, निज भावों में लीनता । यथार्थ मानके चलना, जितना शांत आप यहाँ धर्मसभा में विराजते हो, उतना शांत अंदर में विराज जाओ, तो 'कण-कण स्वतंत्र' का भान हो जायेगा । स्वतंत्रता का ज्ञान हो रहा है, भान नहीं हो रहा है। भान हो जायेगा, तो आप कहोगे, छोड़ें सब, कौन पिता, कौन माँ ? सब छोड़ो। जिस दिन यह सूत्र गूंज जायेगा, उस दिन मालूम चल जायेगा कि भेद ज्ञान क्या है। चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमाला कलापे । अथ सतत विविक्तं दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्म-ज्योतिरुद्योतमानम् ॥८अ.अमृत कलशा। ज्ञानियो ! एक तत्त्वज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव क्या निहारता है ? सम्यग्दृष्टि का तन कहीं और हृदय कहीं होता है। इस प्रकार से जो नौ तत्त्व हैं, वह दीर्घकाल से है जैसे कनक पाषाण में यथार्थ सोने में, सोने की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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