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________________ समय देशना - हिन्दी २४६ जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।।१९।। समयसार ॥ कर्म मेरे हैं, मैं इनका हूँ, यह अपने नहीं। मेरे बेटे का सुंदर शरीर, मेरे बेटे की पुत्र वधु बहुत सुंदर आई है। यानी, तूने अपने कर्म नोकर्म को स्वीकारा, फिर तूने अपने पुत्र के कर्म, नो कर्म, का आस्रव किया। पुत्रवधु बहुत अच्छी आई है, उसका भी आस्रव तूने कर लिया । न लेना, न देना, कर्मबन्ध कर लेना । मोक्ष जाने के लिए, कितना शून्य होकर बैठना पड़ेगा। लोग समयसार क्यों नहीं पढ़ते? अगर समयसार पढ़ लेंगे, तो परसमय की बातें नहीं कर पायेंगे। संबंधों को संबंध रहने दो, संबंधों को स्वभाव मत मानो। रिश्ते तो चलते हैं, चलते रहेंगे। वर्द्धमान स्वामी को, आदिनाथ स्वामी को गये कितने वर्ष हो गये पर आज भी लोग याद कर रहे हैं, पर वे तो चले गये। सम्यक्त्व जो है वह स्वतंत्रता का निर्णय करा देता है । ज्ञान, ज्ञान करा देता है । चारित्र यानी स्वतंत्रता से आगे जाकर परतंत्रता से दूर करा देता है । दर्शन ने कहा कि पुत्र मेरा नहीं, ऐसी श्रद्धा बनाई। ज्ञान ने कहा कि अत्यन्ताभाव है। चारित्र कहता है, तो हट जाइये । ज्ञान है, दर्शन है, फिर भी मेरा-मेरी चल रही है। तू तेरा नहीं है। जब तक मेरा मेरी शब्द है, तब तक मरा-मरी है। मेरी-मेरा' चला जायेगा तो मरामरी समाप्त हो जायेगी। अभी स्वतंत्रता का ज्ञान नहीं है । यदि तू स्वतंत्र है, तो बंधा किसमें है ? अपने एकीभाव का निर्णय तो होगा, तू स्वतंत्र है कि मैं हूँ ? जिस दिन तुझे यह निर्णय हो जायेगा, उस दिन कपड़े तेरे तन पर टिक नहीं सकते और कपड़ेधारियों के बीच तू रह नहीं सकता । मैं स्वतंत्र हूँ, सत्य मार्ग यह है। अभी आपको स्वतंत्रता का ज्ञान नहीं है, मानिये । हाँ, शाब्दिक ज्ञान है । जो समयसार की भाषा में तत्त्व निर्णय शब्द है न, यह जानकारी का निर्णय नहीं है। बस यह अंदर में लग जाये। कुछ भी हो, यह निर्णय दो के पास ही होता है, साधु या डाकू। घर छोड़ कर जंगल में भटकना छोटी बात है क्या ? जिसने निर्णय किया, कि अब तो मर जाऊँगा। कितना कठोर निर्णय किया उसने? कितने बंधन थे? समाज क्या कहेगी, लोग क्या कहेंगे, रिश्तेदार क्या कहेंगे? मालूम चूक हो गई। वह साधु बनता तो श्रेष्ठ साधु बनता। एक बात स्पष्ट कर दूं, इन कपड़ों का उतारना बहुत बड़ी बात नहीं है, यह तो एक क्षण में हट जायेंगे। परिवार, कुटुम्ब, समाज, देश, इन सभी को छोड़ने के बाद लज्जा का यानी शरीर से वस्त्र उतारना । वे वस्त्र नहीं उतार पाये। शरीर के वस्त्र उतर गये, तो नंगापन तो रहेगा परन्तु दिगम्बरत्व नहीं रहेगा। वस्त्र उतरें, तो ऐसे उतरें जैसे उन मुनिराज के उतरे थे, जिनके सामने डाकुओं का गिरोह आया था। डाकुओं ने अपने सरदार से कहा था इन साधु को भगा दो। सरदार कहता है, यह तो धरती के देवता, निर्ग्रन्थ तपोधन हैं। इन्हें कंचन व कामिनी से कोई प्रयोजन नहीं होता है । माता-पिता, पुत्र आदि से कोई राग नहीं रहता है। इनको मत भगाओ। ये अपने कार्य में विघ्न नहीं करेंगे और उनको नमस्कार करके कहा, कि आज मेरा काम हो जाए। वे निर्ग्रन्थ योगीश्वर वही ध्यान में लीन खड़े थे। इसी बीच में होनहार तो देखो, होनहार भी तो कोई वस्तु है, होनहार के बिना कुछ होता नहीं, और कार्य हुए बिना होनहार होती नहीं। होनहार क्या हो गई, जो मुनिराज वहाँ खड़े थे, वे जब मुनि बने थे, तो उनकी बहिन छोटी थी, आज शादी के योग्य हो चुकी थी। और माँ राज्यदल के साथ अपनी कन्या की शादी करने जा रही थी। रास्ते में साधु दिख जाये, तो लोग अहोभाग्य मानते हैं । जंगल में रथ गुजर रहा था, माँ ने बेटे को पहचान लिया। अरे ! यह तो मेरा पुत्र है। माँ का पुत्र होना कोई दोष नहीं है, पर पुत्र की माँ नहीं थी। क्योंकि पुत्र मुनिराज थे। और माँ का राग फूट पड़ा। आपकी बहिन की शादी होने जा रही है, जंगल में कोई डर तो नहीं है ? मुनिराज कुछ नहीं बोले । नेत्र For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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