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________________ २४८ समय देशना - हिन्दी जिनेन्द्र की वाणी अन्यथा नहीं होती है। हमारी प्रज्ञा की न्यूनता हो सकती है, पर उनके कैवल्य में प्रज्ञा की न्यूनता नहीं हो सकती। अपने विचारों से जिनवाणी को तौलने का त्याग कर देना। आलू, प्याज के साथसाथ निज विचारों का भी त्याग कर देना । निज विचारों के त्याग बिना सम्यक्त्व नहीं होगा, इसलिए पहला सम्यक्त्व आज्ञा सम्यक्त्व है। निज विचारों पर चलना सम्यक्त्व नहीं है। जिन विचारों पर निज विचार चलाना सम्यक्त्व है । बहुत कठिन है । एक अक्षर भी अपने अनुसार चलाने का विचार आगया न, विश्वास रखना, सम्यक्त्व गया । यहाँ एक शब्द का प्रयोग कर लेना, श्रद्धा तो सत्मार्ग पर अंधी ही होना चाहिए। सत्मार्ग पर अपने विचारों की टार्च मत चलाना । श्रद्धा तो सत्मार्ग पर एकाकी ही होना चाहिए है। जो सत्मार्ग है, वह अनेकान्त ही होता है। मैं इसमें स्याद नहीं लगाऊँगा। मेरी श्रद्धा तो अरहंत के चरणों में एकाकी है। मेरी श्रद्धा तो देव शास्त्र गुरु पर एकाकी है । एकाकी का मतलब एक महावीर को नहीं मानता हूँ, अनंत अरहंतों को, अनंत सिद्धों, आचार्यो, उपाध्याय, साधु पंचपरमेष्ठी अनंत पर है। वीतरागता पर मेरी श्रद्धा एकाकी है। यह हमारा एकांत भी अनेकान्त है। इसमें यदि आप कहना चाहें कि रूढ़िवादी है सत्य हैं। आप कहना चाहें कि, परम्परावादी है, तो भी सत्य है । मोक्ष परम्परावादी स्वीकार होता है। मस्तिष्क को विशाल तो करना, पर विक्षिप्त मत करना । अन्तर है दोनों में। हम लोग स्याद्वादी हैं। हम लोग जगत के लोगों को भगवत् स्वरूप मानने वाले हैं । पर अववान् को भगवान् मानने वाले नहीं हैं। आपमें भगवान बनने की शक्ति तो है, पर भगवान् नहीं हो। एक मोती मिट्टी में चिपका । मोती मिट्टी में है, कि मिट्टी में मोती है ? दोनों स्वतंत्र हैं, फिर चिपका कौन, किसमें? निश्चय व व्यवहार दोनों से कहो। निश्चय से स्वतंत्र है, पर व्यवहार से तो चिपके हैं। चिपके न होते तो संज्ञा मिट्टी में मोती की कैसे ? मोती मिट्टी से है , परन्तु निश्चयदृष्टि कहती है कि मोती स्वतंत्र है। अगर मोती स्वतंत्र है, तो मिट्टी संज्ञा क्यों ? तू संसार में है, संसार में भगवान् आत्मा है । संसारी भगवान् आत्मा है, इसका मतलब ही है कि मोती मिट्टी में है। अरे ज्ञानियो ! मिट्टी छुटानी है, तो मिट्टी सुखानी है। अहो ! छुटाने जाओगे, तो आपके हाथ गंदे हो जायेंगे । अत: छुटाने मत जाओ, मिट्टी सुखा दो, तो मिट्टी झड़ जायेगी, तो मोती स्वतंत्र हो जायेगा। मिथ्यात्व छुटाया नहीं जाता, सुखाया जाता है। मिथ्यात्व सूख जाये, तो सम्यक्त्व का मोती स्वतंत्र हो जाये, तो कण-कण स्वतंत्र है। यही सम्यक्त्व है। जो श्रद्धा मिथ्यात्व की आर्द्रता में जा रही थी, उस आर्द्रता को सुखा दो मोती स्वतंत्र है, धूल झड़ जायेगी। मोती की चमक मोती में रहेगी। समझ में आ रहा है ? यह पेन न तेरा कर्म है, न नो कर्म है, अत्यन्ताभाव है। फिर भी मूढ कहता है कि पेन मेरा है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म, नो कर्म, तीन शरीर, छः पर्याप्तियाँ हैं । अज्ञ कहता है कि वह मेरा शरीर कितना सुंदर है। काँच के काँच फोड़ दिये इस पर्याय की पर्यायों को देखते-देखते। कोई नहीं होता कक्ष में, तू होता है और दर्पण होता है बातें होती हैं। इधर देखो, बाल ठीक है कि नहीं? हे ज्ञानी ! जैसे तू एकान्त में इस तन की चर्चा दर्पण के सामने करता था, ऐसे ही चेतन-दर्पण के सामने चेतन की बात करने का नाम सम्यक्त्व है। कर्म तो कर्म, इस नो कर्म को देख-देखकर गद्गद् हो रहा था। सत्य बताना, दर्पण के सामने कितनी पर्याय नष्ट की? व्याख्यान करने जा रहे थे तत्त्व का, पर दर्पण में देख रहा था कि चेहरा चमक रहा कि नहीं, क्योंकि गद्दी पर बैठने वाला हूँ। यह चेहरा जो देख रहा है वह कौन सी दशा है ? कम्मे णोकम्महिन य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्म । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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