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________________ समय देशना - हिन्दी २४७ कुछ नहीं है। एक समय भोजन मिलता है आपको, सब जगह आप जा नहीं सकते हो, बहुत सारी पाबंदियाँ आ चुकी हैं। यदि रागी है, तो पाबंदियाँ हैं; वैरागी है, तो स्वतंत्र है। कोई भी जीव आता है, तो देखना चाहिए कि भावुकता में आया है या कि वैरागी है। भावुकता वाला होगा तो महीने भर में समझ में आ जायेगा। उससे कहना जाओ, हो गई साधना । और वैरागी होगा तो उसकी साधना बढ़ती जायेगी। इसलिए यह शीघ्र निर्णय का स्थान नहीं है, यह अन्दर का विषय है। वैराग्य-समन्वित परिणति होगी तो ध्यान रखना, रत्नत्रय से बड़ा सुख जगत में कोई नहीं है। आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिव माहि न तातें, शिवभग लाग्यो चहिये ।।३/१ छहढाला ॥ यदि इस मुद्रा में भी आकुलता है तो, ज्ञानी ! तेरे पास किंचित भी सुख नहीं है। संबंधों से, संबंधियों से दूर तो रहना पड़ेगा। ये पर के संबंध ही आकुलता के साधन हैं। जितना आप असंबंधित होंगे, उतने ही आप आनंदित रहोगे, और जितने आप पर से संबंधित बन कर रहोगे, नियम से आपको आत्मसुख का अभाव होगा । जब आपको कोई जानता नहीं था, तब आपकी सामायिक अच्छी होती थी और जब आपको कोई जानने लगे, तो आपकी सामायिक भंग होती है। समाज तो आती है, पर सामायिक नहीं होती है। इसलिए सम्बन्धता तो कर्मबंधता का साधन है। रत्नत्रय की आराधना को सम्यक्त्व का आत्मा कहा है। ज्ञानी ! श्रद्धा कहाँ होगी? आत्मा में एक बात और बताओ. देव शास्त्र गरु पर श्रद्धा पहले होगी कि 3 कि आत्मा पर पहले होगी? देखो, यहाँ अलग-अलग विचार हैं। यानी लोक में मत भिन्नताएँ है । वह लोक में जीने वालों के कारण नहीं, लोक में भिन्नताएँ वक्ताओं के अलग-अलग विचार से हैं। बहुत सारे मत श्रद्धा से नहीं चलते, सम्बन्धों से चले हैं। यानी आपकी पत्नी आपकी बात मानेगी, आप जैसा कहें वैसा धर्म मानेगी और पत्नी अपने बच्चों को सिखाती है, बच्चे अपने बच्चों को । ज्ञानियो ! पीढ़ियाँ बढ़ गई, मिथ्यात्व का भी पिण्ड बढ़ गया, श्रद्धा से सम्प्रदाय नहीं चलते, सम्प्रदाय तो संबंधों से चलते है। श्रद्धा समीचीनता पर होती है, लेकिन संबंधों के कारण विपर्यासों में जाता है। क्यों? यह मेरी समाज का विषय है, यह हमारी जाति का विषय है। पर अभी तुझे वस्तु स्वतंत्रता का ज्ञान नहीं है। सम्यक की साधना संबंधों में किंचित भी नहीं होती। सम्यक्त्व की साधना वह है. जिसमें क्रिया होती दिखती नहीं है। अंदर की गहरी क्रिया का नाम सम्यक्त्व है। ज्ञान की साधना में जिनवाणी खोजना पड़ती है । चारित्र की साधना में अव्रती को महाव्रत धारण करना पड़ता है। सम्यक्त्व की साधना में श्रद्धा को मजबूत करना पड़ता है। सम्यक्त्व की साधना रासायनिक क्रिया है। मिथ्यात्व को कैसे विगलित करना ? अंदर की प्रकृति को नापना-तौलना । जीवन पूरा निकल जाता है परन्तु अपने परिणामों तक का जीव को ज्ञान नहीं रहता। सम्यक्त्व की साधना कौन कर पायेगा? जो बंधनों से मुक्त हो जायेगा। मेरे से भी नहीं बन रही, इनसे भी नहीं बन रही, किसी से भी नहीं बन रही, तो क्या करोगे? वस्तु की स्वतंत्रता का भान हो जाना और तत्त्व का निर्णय हो जाना कि जो सर्वज्ञ ने कहा है, वह ध्रुव सत्य है, ये निर्णय हो जाये। निर्णय आपके ज्ञान में । समझ में आये या न आये, पर इतना निर्णय हो जाये, कि अरहंत ने जो कहा, वह सत्य कहा है। आप समझो कि द्वादशांग का ज्ञान आपको हो नहीं सकता, इतना क्षयोपशम नहीं है। सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथा वादिनो जिनाः ।।५।। आलाप पद्धति ॥ जिनेन्द्र के तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अरहंत की आज्ञा मानकर उसे स्वीकार कर लेना। क्यों? क्योंकि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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