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समय देशना - हिन्दी
२४४ पर गूंजता था, मंगलाचरण तो मालूम चलता था। ये कभी मत सोचना सामने वाले समझ रहे कि नहीं, इतना तो समझ रहे हैं, मंगलाचरण बोल रहे हैं, तब भी बोलना । प्रत्येक वक्ता को एक प्राकृत और संस्कृत छन्द बोलना ही चाहिए प्रवचन में उसके बिना कुछ होता नहीं, क्योंकि आपने जिनेन्द्र की वाणी का प्रयोग किया ही नहीं है, तो जब वह विद्वान बोलता है, श्रीमत परम गम्भीर ..... । हम किन के शासन को जयवन्त करने आये है, जिनशासन को । पं. दरबारी लाल कोठिया जी धवला जी की व्याख्या कर रहे थे टीकमगढ़ में, उनका प्रवचन हुआ, तो उन्होंने न्याय कुमुदचन्द्र का मंगलाचरण किया, तो लगता था कोई विद्वान तार्किक ग्रन्थ से बोल रहा है।
धर्मतीर्थ करेभ्योऽस्तु स्याहादिभ्यो नमो नमः ।
ऋषभादि महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥१॥ लघीयरित्रयकारिका पाठ ॥ आवाज भी अच्छी थी, तेज तो लगता था, कि स्याद्वादी सिंह बोल रहा है । श्वेताम्बर पत्रिका एक बार में पढ़ रहा था, तो उन्होंने साधुओं पर कटाक्ष किया, कटाक्ष भी सुन्दर होते है । अहो मेरे आचार्य भगवन्तों, मुनि भगवन्तों, महावीर की वाणी वर्तमान के लोगों की भाषा में नहीं थी, वर्द्धमान की वाणी में हमारी मूल भाषा प्राकृत है। यदि आप लोग ही बोलना बन्द कर देगें, फिर इसका रक्षण सुरक्षा कैसे होगी? गुण जहाँ मिलें ग्रहण कर लेना, उस दिन मैंने विचार किया, लिखने वाला कह रहा है, उसकेमन में टीस आई होगी, सभी हिन्दी का मंगलाचरण बोलकर प्रवचन प्रारंभ कर देते हैं, और हिन्दी से ही समाप्त कर देते हैं, कुछ मंगल तो करो, हिन्दी मंगल नहीं, ऐसा मेरा निषेध नहीं है, वो भी तीर्थंकर की क्षुद्र महाभाषा में एक भाषा होगी। पर ध्रुव सत्य है, आपको धर्म की भाषा का भी प्रयोग करना चाहिए।
धर्मतीर्थ करेभ्योऽस्तु स्याहादिभ्यो नमो नमः ।
ऋषभादि महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ।।१।। लघीयरित्रयकारिका पाठ ॥ चौबीसी पुराण हो गया, सम्पूर्ण न्याय हो गया, सम्पूर्ण सिद्धान्त आ गया, सम्पूर्ण स्वात्मोपलब्धि का समयसार हो गया। यही कारण है मात्र मंगलाचरण पर एक ग्रन्थ लिखा गया।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तार, कर्मभूभृताम् ।।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वंदे तद्गुण लब्धये ॥त.सू.। मोक्षशास्त्र । इस मंगलाचरण के ऊपर 'आत्म परीक्षा' नाम का ग्रन्थ मात्र इसके मंगलाचरण के ऊपर लिखा है। आचार्य भगवन् विद्यानंद स्वामी ने।
भूतार्थ- अभूतार्थ, घर में भी इसका प्रयोग करे तो बहुत अच्छा होगा, विद्या है प्रयोगकर लो, यदि सिंघई जी टोपी को सिर पर लगायें थे, किसी ने फेंक दिया। आज कल बच्चे लगाते नहीं है, इसलिए अभूतार्थ है, हमारे लिए भूतार्थ है, गुस्सा नहीं करना, उसने गलत नहीं किया।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे है, कि जीवादि नवतत्त्व है, भूतार्थ रूप से, इनको जो जानता है, वह सम्यक्त्व है। जीवादि नौ तत्त्व है, भूतार्थ नय से जानना चाहिए, यहाँ पर सम्यक् की प्राप्ति का साधन है व्यवहार, इसलिए भूतार्थ है, क्यों ? व्यवहाराभास, निश्चयाभास । आभासों में धर्म नहीं है, धर्म सत्यार्थ में है। संयमाभास भी होता है, आभास कितने होते है, आभास, असंख्यात लोक प्रमाणनय है, तो असंख्यात लोक प्रमाण आभास हैं। जितने जीव के असत्यार्थ विकल्प हैं, वे सब आभास है। जितने वक्ता उतने नय, जितने वक्ताओं के विपर्यास है, वे सब आभास है, इसलिए
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