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समय देशना - हिन्दी
'जावदियं वयवादं तावदियं नयवादं' (सन्मतिसूत्र )
आचार्य सिद्धसेन गणी कह रहे है, जितने वचनवाद उतने नयवाद । जितने नयवादों का विपर्यास है, उतने आभास है । हेत्वाभास, स्वरूपाभास, कार्यकारणाभास, संयमाभास, निर्ग्रन्थाभास, जैनाभाष ।
एक जीव ने संयम को स्वीकार किया और जैसा संयम का आगम में प्ररूपणा है, वैसा पालन नहीं करता संयमाभास । व्यवहार संयम कह रहा था, श्रावक की बात कर ले लकड़ी को शोधबीन के जलाना, माँकह रही थी, बेटी गई उठाई और ऐसे ही जला दी, रोटी बना दी, सोलाभास, बोले क्यों वो तो माँ व्रती थी, सोला का भोजन करती थी, उसने देखा ही नहीं, जहाँ से लकड़ी आई थी, उस पर बिल्ली मलकर गई थी, उसी लकड़ी को जलाकर रोटी बना दी, सोलाभास ।
रात्रि भोजन का त्याग करे है, और देर शाम तक खा रहा है, त्यागाभास । तीन घड़ी पहले खाना चाहिए सूर्य अस्त के । रात्रिभुक्ति त्यागाभास । सुबह सूर्य उगा नहीं मंजन कर लिया ... ।
मुनि के पड़गाहन के समय के पहले ही भोजन कर के बैठ गये गृहस्थाभास । दान-पूजन करना चाहिए, तुमने भगवान का अभिषेक देखा नहीं करना तो दूर है, और कह रहे गृहस्थधर्म का पालन कर रहे तो तुम गृहस्थधर्म का पालन नहीं कर रहे, वे गृहस्थ धर्म में षट् आवश्यक में दान भी एक कर्त्तव्य है । षट् आवश्यक धर्म का पालन करना गृहस्थ धर्म है। बच्चे आदि को जन्म देना ही गृहस्थधर्म नहीं है, गृहस्थधर्माभास । गृहस्थधर्म तो बारह व्रतों का पालन करना कहलाता है, बच्चे आदि का पालन धर्म नहीं, राग का पालन I काष्ठ आदि संघ थे, वे संघाभास ।
आभास की परिभाषा - ' ततोऽन्यन्तदाभासम् ।' जो जैसा है उससे विपरीत होना तदाभास । जो बुद्धिपूर्वक ग्रहण किया जाता है, वही व्रत कहलाता है। सभी त्यागी, व्रती को सूर्य के समान रहना चाहिए । सूर्य में आतापनाम का गुण है, जो मूल में ठण्डा होता और किरणें गर्म होती है। अहो त्यागियो ! संयम (साधना) को गर्म रखना चाहिए, स्वभाव ठण्डा होना चाहिए। होता उल्टा है, साधना शीतल है, स्वभाव गर्म है । हे वर्द्धमान स्वामी काल काला है, श्रोता मन की सुनता है, मन की कहता है। हे नाथ आपका शासन तो निर्मल ही है परन्तु अपवाद क्यों है, क्योंकि श्रोता वक्ता नयज्ञान से शून्य हो रहे है। और नय में झगड़ा कर रहे है। फिर भी ठीक है। नया भाषी है जैनाभासी नहीं है। लिंग भेद तो नहीं है, मध्यकाल में लिंग भेद हो गये थे । वह जैनाभासी
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व्यवहार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्दर्शन' हे भूतार्थ है, इन नव तत्त्वों में, एकत्व से उद्योदित करेंगे, एकत्वभाव से प्रकाशवान करेंगे, तो भूतार्थ नय से तो एकत्व ही ग्रहण करने योग्य है। इन तत्त्वों में एक मेरा शुभ चिद्रूपआत्मा है, वही ग्राही है, शेष अग्राह्य है, किस नय से, निश्चयनय से । शुद्ध से आत्मा से, अनुभूति ले रहा आत्मा की । ऐसा समझना चाहिए निश्चय व्यवहार ये शब्द आत्मानुभूति का मार्ग नहीं है। अब समझो समयसार कितना गहरा है । देव, शास्त्र, गुरु के प्रति आदर सम्मान करना, इतना मात्र सम्यक्त्व नहीं है । क्योंकि भद्र मिथ्यादृष्टि जीव भी देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करता है, जो मिथ्यात्व के साथ देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करता है ।
प्रवचनसार गाथा -
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एस सुरासुर मणु सिंद वंदिदं धोदघाइ कम्ममलं ।
पणमामि बड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ प्रवचनसार ||११||
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