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समय देशना - हिन्दी
२४३ है। देव, शास्त्र, गुरु की आराधना स्वात्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए है, पर आराध्य को आराध्य में विलीन होने के लिए नहीं है । मैं पंचपरम गुरु का आराधक हूँ, पर उनकी आराधना के लिए नहीं हूँ, मैं पंचपरमेष्ठी परमगुरु का आराधक हूँ, जिन स्वभाव भाव को प्रकट करने के लिए हूँ | वे परमेष्ठी रहे और मैं, मैं रहूँ, इसलिए मैं आराधना नहीं करता हूँ, तो व्यवहार से सम्यक्दर्शन, ज्ञानचारित्र की जो व्याख्या है, वो व्यवहार से ही भूतार्थ है, निश्चय से अभूतार्थ है क्यों ? इनका आलम्बन जब भी मैं लूँगा, तो मैं अकषायी नहीं हो पाऊँगा, ध्यान दो भ्रमित मत हो जाना । मैं देव, शास्त्र, गुरु की आराधना करता रहूँगा, तब तक ईयापथ आस्रव नहीं होगा, और जब तक ईयापथ आस्रव नहीं होगा, तब तक परमध्यान शुक्लध्यान की लीनता नहीं होगी, और शुक्ल ध्यान के अभाव में, कैवल्यज्ञान नहीं होगा और केवल के अभाव में निर्वाण नहीं होगा, इसलिए ये देव, शास्त्र, गुरु की आराधना देखो भटक मत जाना, आप भक्ति करना, छोड़ मत देना। पर देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति निज स्वभाव भाव नहीं है । कषायभाव है, कषाय की मध्यम अवस्था में देव, शास्त्र, गरु झलकते है, कषाय की उत्कष्ट दशा में देवशास्त्र गरु भी नहीं दिखते है और कषाय के जघन्य अंशों निजशुद्धात्मा दिखती है । इसलिए व्यवहार रत्नत्रय, निश्चय रत्नत्रय, के लिए साधन है, साध्य नहीं है। व्यवहार रत्नत्रय की क्रिया साधन ही है, साधकतम नहीं है । व्यवहार रत्नत्रय की आराधना, निश्चय के लिए साधन ही है, वह निश्चयरत्नत्रय के लिए साधकतम भी नहीं है। साधकतम तो निश्चय की लीनता के लिए, रत्नत्रय से परिणत निज परिणामों की परिणति ही है। ये पिच्छी कमण्डलु, जिनमुद्रा रत्नत्रयधारी की मुद्रा है, रत्नत्रय धर्म नहीं है। समझ में आ रहा है, पिच्छी कमण्डलु, जिनमुद्रा, ये रत्नत्रयधारी का चिन्ह है, ये रत्नत्रयधारी की मुद्रा है। ये रत्नत्रयधारी का लांछन है, लेकिन ये रत्नत्रय नहीं है, यदि इतने मात्र से रत्नत्रय होता है, तो अभव्य जीव को रत्नत्रयधारी कहना होगा। इसके बिना रत्नत्रय होता नहीं है, अन्यथानुत्पत्ति । लिंग की सत्ता में परिणामों की परिणति के साथ जो है, तथा उत्पत्ति द्रव्यसंयम के साथ, अनंतानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, सर्वधाति प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय, देशघाती प्रकृति संज्जवल न के उदय होने पर जो जीव के परिणामों की दशा है, वह संयम है तथानुत्पत्ति । अब ध्यान दो भेष मुनि की व्याख्या अनंतबार सुनी है । अब न्याय और दर्शन की भाषा में भावमुनि की व्याख्या सुन रहे हो तथा उत्पत्ति, अन्यथानुत्पत्ति।
ज्ञानी ! तुझे पिच्छी कमण्डलु भी दे दिया, अट्ठाईस मूलगुणों का आरोपण भी कर दिया, पर तेरे पालन की परणति नहीं है तथा उत्पत्ति, अन्यथानुत्पत्ति ।
करणानुयोग कह रहा है, मैंने जो परिभाषा बनाई है, दिगम्बर मुनि की, वही सत्य है, वही भूतार्थ है, अन्यथा उत्पत्ति यदि वो नहीं है, अन्यथानुत्पत्ति वही है तथानुत्पत्ति । इससे ही उत्पन्न होता है । इसलिए व्यवहार रत्नत्रय भूतार्थ भी है, अभूतार्थ भी है, लेकिन प्रारंभ के लिए भूतार्थ ही है, निज स्वरूप में लीन के लिए अभूतार्थ ही है। द्रव्यरत्नत्रय भूतार्थ है, सत्य है, अभूतार्थ है सत्य है। दोनों सत्य है। इस भाषा का प्रयोग घर में करें, तो घर में विसंवाद नहीं होगा। स्याद्पद ही तो लगा है, जीवन्त और जैवन्त होने वाला कोई लोक में पदार्थ है, तो स्याद्पद ही है।
श्रीम्-परमगम्भीर, स्याट्ठादामोध-लाञ्छुनम् ।
जीयात्-त्रैलोक्यनाथस्य, शासनं जिन-शासनम् ॥३॥ श्री अर्हद् भक्ति ॥ जब से फिल्मी भजनों का राज्य आया, तो मंगलाचरण भी फिल्म में चले गये, पहले विद्वान की गद्दी
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