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समय देशना - हिन्दी
२४२ चलायमान नहीं होता है। जो जीव का स्वभाव है, वही त्रैकालिक स्वभाव भूतार्थ है, शेष अभूतार्थ है। यानी हमारे लिए निष्प्रयोजनभूत है। इसलिए उन नौ तत्त्वों में एकमात्र जीव तत्व ही ऐसा समझना चाहिए। आप सात तत्त्व समझते हैं न ? पुण्य-पाप भी आश्रव ही हैं, इसलिए नौ तत्त्व है। जो वस्तु का स्वभाव, वह तत्त्व।
जो परिणमनशील हैं, वह पदार्थ है और तत्त्व में भी परिणमनशीलता है, इसलिए दोनों एकभूत है। क्योंकि पदार्थ में भी तत्त्वता है। जो अनुभूति है, वही आत्मा की ख्याति है। जो आत्मा की ख्याति है, वही सम्यक्दर्शन है। जो कि सम्पूर्ण रूप से निर्दोष है, निर्बाध है । अन्तिम पंक्ति में क्या बोल दिया ? जो श्रद्धा है, जो सम्यक्त्व है, वह अनुभव है, आत्मख्याति है। आत्मानुभूति है, वही सम्यग्दर्शन है। इसमें कोई दोष नहीं है। ऐसा आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं। सम्यक्त्व है, और अनुभूति नहीं है, तो सम्यक्त्व क्या है ? निश्चयाभासी यहाँ व्यवहारपक्ष से च्युत है और व्यवहाराभासी निश्चयपक्ष से च्युत है। ध्यान दो, बिजली है, तार आप पकड़े हैं, प्लग लगा दिया है, पर पावर स्पर्शित नहीं हो पा रहा है, तो क्या होगा? नहीं जलेगा। ढीला लगाया था, अत: समय भी गया, क्रिया भी गई, और कार्य नहीं हुआ, क्योंकि अन्तर था। तत्त्वज्ञान भी किया, द्रव्यसंयम भी प्राप्त कर लिया, लेकिन अनुभूति के स्पर्श से दूर रहा तो वह ज्योति जली नहीं। घर भी छोड़ दिया, परिवार से भी गया, परिणति नहीं बदल पाई, तो गति भी बदल गई। हमारी बातें सुनकर वैराग्य धारण कर मुनि मत बन जाना । बनना है, पर परिणति को अच्छे से बना के बनना है। तटस्थ होकर देखना। जैनदर्शन विशाल है । पक्षों-विपक्षों में धर्म नहीं होता। धर्म प्रकृति का है। कपड़े के साथ मिथ्यात्व को भी उतार देना। नहीं उतार पाये, नीति का वैराग्य तो हो गया । बारह भावना का वैराग्य सरल है, सिद्धांत का वैराग्य कठिन है । जो आत्मानुभूति है, वही सम्यक्त्व है। जो सम्यक्त्व है, वही आत्मानुभूति है। बिना सम्यक्त्व के आत्मानुभूति नहीं है, बिना आत्मानुभूति के सम्यक्त्व नहीं, लेकिन सराग सम्यग्दृष्टि की आत्मानुभुति सरागरूप ही है, वीतरागी सम्यग्दृष्टि की वीतरागभूत ही है । निर्णय करना आवश्यक है। मिथ्यात्व की अनुभूति मिथ्यारूप, सम्यग्दृष्टि की सम्यक्त्व रूप और वीतरागी सम्यग्दृष्टि की शुद्धोपयोग रूप ही होगी। । भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
gaa आचार्य भगवन कुन्दकुन्द स्वामी परम स्वतत्त्व की व्याख्या करते हुए समझा रहे हैं। एक ही द्रव्य एक ही समय में भूतार्थ है, एक ही समय में अभूतार्थ है । व्यवहारिक दृष्टि से देखे, एक नीम का वृक्ष नीम का पत्र मनुष्य के लिए अभूतार्थ है, ऊँट के लिए भूतार्थ है। एक अरहंत का बिम्ब सम्यक्दृष्टि के लिए भूतार्थ है, मिथ्यादृष्टि के लिए अभूतार्थ है । एक पुरुष निज स्वभाव में है भूतार्थ, परभाव में अभूतार्थ । लोक में ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है, जो उभयरूपता से शून्य हो, भूतार्थ भी है, अभूतार्थ भी है, यानि सत्यार्थ भी है असत्यार्थ भी है, इसलिए जो ध्रुव सत्यार्थ स्वरूप वस्तु का है, उसकी खोज अन्तस् में उतर के करना है, जो सात तत्त्व है, सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र, मोक्षमार्ग, व्यवहार रत्नत्रयभूतार्थ है अभूतार्थ है, व्यवहार रत्नत्रय में जब सम्यक की बात करेंगे, तो तत्त्वों का श्रद्धान देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान सम्यक् है। सत् शास्त्रों का ज्ञान ये सम्यकज्ञान है । मूल और उत्तर गुणों का पालन करना सम्यक् चारित्र है। ये सब विकल्प दशायें है, परालम्बभाव है, परगत तत्त्व है, जिनवाणी मेरी आत्मा का धर्म नहीं है, गुरु मेरी आत्मा का धर्म नहीं है, जिनदेव मेरी आत्मा का धर्म नहीं है। यदि ये मेरी आत्मा का धर्म है तो मेरी आत्मा, ईश्वरवादी जैसी पराधीन
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