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________________ समय देशना - हिन्दी २४१ आवश्यकता है ? इससे लगता है कि कितना भ्रम है। हाँ, उपादान जब अपनी योग्यता को प्राप्त कर लेता है, तब कहना, कि निमित्त ! अब तेरी कोई आवश्यकता नहीं; अब तुम जैसा चाहो, वैसा करो। वहाँ कहना । वैसे आपके कहने की आवश्यकता दिखती नहीं है । जब कार्य सिद्ध हो गया, तब कार्य नहीं चाहता है कि कार्य होने के बाद आप अब आभार प्रदर्शन करें । कारण कहता है कि काम हो गया, अब मुझे छोड़ दो, मैं स्वतंत्र हूँ। जैसे कि कर्म का और आत्मा का युद्ध चला और युद्ध होते-होते कर्म परास्त हो गया, आत्मा सिद्धालय में पहुँच गई, अब आभार प्रदर्शन किसका, कौन करे ? जो करनेवाला था, वह सिद्ध हो गया, जो करानेवाला था, वह गिर गया, अब करे कौन? इस समयसार को सुनने से मस्तिष्क स्वतंत्र होता है, पराधीनता विगलित होती है, राग की लिप्तता में न्यूनता आती है यदि गहराई से समझ लिया तो और इतना ही नहीं, ज्ञान का क्षयोपशम बढ़ता है। कैसे? मकान में कचरा रखा हो, रखा ही तो है, उसको हटाये बिना दूसरी सामग्री रखी भी तो नहीं जा सकती। कचरा फेंक दिया जाये बाहर, तो मकान बड़ा दिखना प्रारंभ हो जाता है। ऐसे ही हमारे अन्दर विकारों के विकल्पों का कचरा रखा हुआ है । वह समयसार से पृथक हो जाता है। फिर उसमे तत्त्व ज्ञान रखा जाता है, तो अपने आप ज्ञान बढ़ता है और सुनते-सुनते मस्तिष्क में विशालता आती है। . जातिलिंग विकल्पेन, येषां च समयाग्रहः । . तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव, परमं पदमात्मनः ॥८९|| समाधितंत्र ॥ आचार्य पूज्यपादस्वामी समाधितंत्र में लिख रहे है; जब तक तेरे अन्तस्करण में जाति, कुल का विकल्प रहेगा, तब तक परमपद परमात्मा को प्राप्त नहीं कर पायेंगे । जाति तो तन का निमित्त है, लिंग यह शरीर का विकार है, लेकिन धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। इस विषय पर चर्चा करना है तो रत्नकरण्ड श्रावकाचार बहुत अच्छा है। हे ज्ञानी ! धर्म के प्रभाव से श्वान भी देव हो जाता है, और पाप के उदय से देव भी श्वान हो जाता है । अब बताओ वहाँ पर जाति कहाँ चली गई ? जो इस अहंकार में रहते हैं कि मैं उच्च जाति का हूँ, कहाँ चला गया ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने जाति का विखण्डन किया है बड़े ही सुंदर शब्दों में सम्यग्दर्शन सम्पन्न-मपि मातङ्ग देहजम् । देवादेवं विदुर्भस्म-गूढांङगारान्त-रोजसम् ।।२८|| र.क.पा.। मातङ्ग का पुत्र भी क्यों न हो, वह भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध होता है। जैसे राख में अंगारा छुपा होता है। उसी प्रकार सम्यक्त्व किसी भी जाति में हो सकता है। "दंसण मूलो धम्मो" धर्म का मूल दर्शन है, यह हमें स्वीकार है। अब कहना हाँ, वंशगत परम्परा है, जो अपनी-अपनी है। सम्यग्दृष्टि तो होता है, पर मंदिर के अन्दर आने का पात्र नहीं है, न अभिषेक कर सकता है, क्योंकि उसका सम्यग्दर्शन उसी भव से मोक्ष नहीं दिलायेगा । क्यों ? सम्यक्त्व की योग्यता तो है, पर चारित्र की योग्यता नहीं है । मैं जहाँ बैठा हूँ, वहाँ उभय बात कहना अनिवार्य है, नहीं तो कल से तुम दूसरी परम्परा खड़ी कर दोगे। जीव में विकार आ रहा है, उसका हेतु अजीव है, उससे क्या प्रगट हो गया, परद्रव्य के संबंध से विकार आया है। परद्रव्य से संबंध हट जाये, तो आत्मा निर्विकार है। पुण्य-पाप-आश्रव-संवर निर्जरा बंध मोक्ष लक्षण ही जीव के विकार का हेतु है । जो जीवद्रव्य है, उसके स्वभाव का अभाव न होते हुए, स्वपर प्रत्यय, स्वप्रत्यय, परप्रत्यय, स्वनिमित्त, परनिमित्त पर्याय को अनुभव करते हुए, जो समस्त काल में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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