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समय देशना - हिन्दी अध्यात्म की रुचि प्रगट हुई है, तो एक बार जीवन में 'योगसारप्राभृत' ग्रंथ पढ़ लेना, आचार्य अमितगतिस्वामी ने समयसार के अधिकारों का ही पूरा का पूरा कथन संक्षेप में, किया है, अंतर इतना है, कि समयसार प्राकृत में है जबकि आचार्य अमितगति का ग्रंथ संस्कृतभाषा में है। 'मूलाचार' में एक समयसार अधिकार है। इससे लगता है, कि आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी चौरासी पाहुड न लिखते, तो आज आप तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण शून्य होते। क्योंकि जब द्रव्य के स्वरूप ही का ज्ञान नहीं होता, तो करणानुयोग किसमें लगाते? आप चरणानुयोग का पालन किसके लिए करते, और प्रथमानुयोग किसका होता? द्रव्य के अभाव में कोई अनुयोग का कथन हो सकता है क्या ? पहले सत् की सिद्धि करोगे, फिर विशेषण लगाओगे, कि पहले विशेषण लगाओगे? विशेष विशेषण भाव सत् ही में होता है, असत् में नहीं होता । वस्तु में होता है, अवस्तु में नहीं होता। भारतीय दर्शन ने पहले वस्तु की खोज की : जब तक आपके पास अस्तित्त्वपना नहीं है, तो अवस्तु में क्या हेयपना लगाओगे और क्या उपादेय लगाओगे । आपका शत्रु है, आपने द्रव्य के अस्तित्व को तो माना । एक दर्शन कहता है, कि मैं महावीर को नहीं मानता। नहीं मानो आप, पर आपने ऐसा कैसे कहा? हमारे ग्रंथों में लिखित है। हमें खुशी है, कि यह सिद्ध हो गया कि महावीर जी थे, क्योंकि निषेध किया है। अभाव का निषेध नहीं होता है। वस्तु का ही निषेध होता है, अवस्तु का कोई निषेध नहीं होता। महावीर की सिद्धि हो गई, वे कैसे थे, यह हम बाद में आपसे मिल लेंगे। पहले यहां पर सत् की सिद्धि करो। कभी मैं 'शब्द मत लाना, ऐसा मेरा मत है, यानि जिनमत नहीं है। कुछ विषयों को निर्ग्रन्थों के मुख से सुनो। जो वक्ता यह कहता है कि यह मेरा मत है, तब यदि मैं श्रोता होऊँगा तो उसकी बात नहीं मानूँगा, क्योंकि इनका मत है जिन का नहीं है। इनका मत मुझे स्वीकार नहीं है। इनका मत वंदनीय नहीं है। वंदना किसकी करूँगा? इनकी नहीं, जिनेन्द्र की वाणी की करूँगा। यह जिनशासन है, इसमें आपका मत नहीं चलेगा। जिनवाणी अविसंवादी होती है, जिनवाणी में विसंवाद किंचित भी नहीं होता।
जीव के विकार का हेतु अजीव है । क्यों ? कर्मबन्ध न होता, तो विभावभाव क्यों होते? जीव के परिणामों से कार्माणवर्गणाएँ,कर्मरूप परिणत होती हैं। और कर्म के सहयोग से जीव रागादिभावरूप परिणत होता है। हल्दी के संयोग से चूना में परिणमन होता, कि चूने के निमित्त से हल्दी में परिणमन होता है? दोनों का निमित्त न होता तो तीसरी पर्याय क्यों होती है? वह निमित्त नैमित्तिक न होता तो तीसरी पर्याय क्यों होती? वह व्यक्ति वस्तुस्वभाव को भूल रहा है। पता नहीं क्यों ये द्वेष भाव आ रहा है मन में कि निमित्त कुछ नहीं करता, अरे ! ये तो बताओ कि यह तुम कब से सीखे हो? तो वह कहता है कि जब से आप ने बताया तब से । जब तू जानता नहीं था, मैंने बताया तो तेरे जानने में निमित्त बनूँगा कि नहीं, बनूँगा?
जो निमित्त का निषेध कर रहा था, उसी के मुख से निमित्त की सिद्धि चल रही है। किसी ने भी तो बताया न? आपने बताया मैं तो कुछ करता नहीं, यही आप ही बता रहे थे, आप न आते तो मैं तो कुछ करता नहीं, आप न बताते तो निमित्त कुछ करता नहीं, यह किससे सीख पाते? हे ज्ञानी निमित्त परद्रव्यरूप नहीं होता, इस अपेक्षा से निमित्त कुछ नहीं करता । सहकारी कारण के बिना कार्य नहीं होता । कार्य कारण भाव है।
तदेतन्मूलहेतोः स्यात्कारणं सहकारकम् ।
यद् बाह्य देशकालादि, तपश्च बहिरङगकम् ।।१५।। स्वरूप संबोधन ।। निमित्त कुछ नहीं करता तो देश, क्षेत्र काल, भाव की तथा जिनवाणी, जिनालय, गुरु की क्या
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