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समय देशना - हिन्दी
२३६ और जीवद्रव्य कब बना? सत्य क्या है ? भाई नष्ट हो जायेगा, पति नष्ट हो जायेगा, यह आज का संबंध है, यह जाने वाले संबंध है। पर जीव त्रैकालिक है। सत्य क्या है ? सत्य न भाई है, न पति है। सत्य तो जीवद्रव्य है। यह सत्य है कि आज अज्ञानी ज्यादा हैं, ज्ञानी कम हैं। जो वक्ता आते हैं, इन अज्ञानियों ने उन्हें भगवान् बना डाला । वे वक्ता भगवान् बन गये । जबकि वक्ता छद्मस्थ थे, उनकी वाणी छद्मस्थ वाणी थी। छद्मस्थ वाणी से जो कथन होगा, वह सर्वज्ञवाणी नहीं हो सकती है। उस छद्मस्थ जीव को उसने भगवान् बना लिया, वहीं से सत्य तेरे हाथ से चला गया। जिस जाति में आपका जन्म हो जाता है, आप उसी जाति के हो जाते हो। ये आय. नाम गोत्र हट जायें, तो आप अशरीरी भगवान् - आत्मा बन जाओगे। आप किसी के नहीं होंगे, अपने ही रहोगे। सबके बनने में पुरुषार्थ नहीं चाहिए, सबके बनने के लिए वक्र मैत्रीभाव दिखाना पड़ता है। अपने बनने के लिए शुद्धभाषा का प्रयोग करना पड़ता है। यह ग्रंथ बाहर निहारने वाला ग्रंथ नहीं है, अंदर निहारने वाला ग्रंथ है । इस ग्रंथ से संबंध मत खोजना, संबंधों से दूर होना है। पत्नि, पिता, बहिन ये पर्यायों से प्रगट होने वाले संबंध है, जबकि द्रव्य त्रैकालिक है। पत्नि के सामने भी जीवद्रव्य है, सभी के सामने जीव द्रव्य है ऐसा जो चिन्तन करता है, वह संसार में रहकर भी ज्यादा समय तक संसारी नहीं रहता है। बस, खोजते रहो। खोजी जीव लोगों की दृष्टि में पागल दिखते हैं । वे किसी से बोलते नहीं हैं, किसी से कुछ कहते नहीं हैं, अपनी धुन में रहते हैं। किसी से बोलेंगे, तो समय चला जायेगा; सुनेंगे तो समय चला जायेगा। सुनना बन्द, बोलना बन्द, और कभी-कभी ऐसे भी क्षण आते हैं कि भोजन भी बंद हो जाता है। जब भोजन भी बंद है, तो मल-विसर्जन भी बंद हो जाता है। बस, जिस दिन शिवत्व की प्राप्ति हो गई, उस
हार-विहार का भी विहार हो जायेगा । जब तक तेरे अन्दर से आहार, निहार, विहार का विहार नहीं हो रहा है, तब तक शिवत्व की ओर विहार नहीं होगा। यह प्रमाणपत्र है । चर्चाएँ कितनी भी गंभीर करते रहना,यदि सिद्धांत को लेकर चलोगे, तो कभी भ्रमित नहीं होओगे। यह सिद्धांत बताइये आप। जब तक तेरा विहार चल रहा है, तब तक मोक्ष के लिए विहार नहीं है। जब यह आहार-विहार-निहार बंद हो जायेगा तब औदारिक शरीर परमऔदारिक हो जायेगा । तब परम निर्वाण को प्राप्त होगा। यह है परम निर्वाण की दशा।
बन्ध-बन्धक भाव आदि जो भाव हैं, वे सत्यार्थ तब-तक हैं, जब-तक मिश्ररूप परिणाम हैं, और जब निज सत्यस्वरूप में आता है, तो वे ही भाव तेरे लिए अभूतार्थ हैं, वही जीव अन्तर्दृष्टि को प्राप्त होता है और जो ज्ञायकभाव को प्राप्त है, वह शुद्ध स्वरूप ज्ञायकभाव, जीव स्वभाव ज्ञायकभाव, अखण्ड स्वभाव ज्ञायकभाव, चिद्रूप स्वभाव ज्ञायकभाव, परमपारणामिक भाव ज्ञायकस्वभाव, यही भूतार्थ स्वभाव है।
यह समसयार ग्रंथ इतने बृहद्ता को क्यों प्राप्त हो गया ? जैसे सोमदेव सुरि ने नीतिवाक्यामृत में लिखा, कि इस ग्रंथ के उपरान्त कोई ग्रंथ नहीं लिखा जायेगा। बड़ी दबंगी से लिखा, कि जो भी नये ग्रंथ लिखे जायेंगे, वे इस ग्रंथ के ही पिष्टपेषक होंगे। पिष्टपोषण यानी पिसे हुये को पीसना । आचार्य कुंदकुंद स्वामी के उपरान्त जितने उत्तरवर्ती विद्वान आचार्य हुए, सबने आत्मा व अध्यात्म की चर्चा की, लेकिन ऐसा कोई ग्रंथ नहीं आ सका, जो समयसार से ऊपर जाता। जिन्होंने जो भी लिखा, उन्होंने सब समयसार को उतार कर रखा । सभी ग्रंथों में आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द ही छाये हैं । आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने पूरी गाथाओं का पद्यानुवाद किया । इष्टोपदेश व समाधितंत्र में अष्टपाहुड और समयसार का पद्यानुवाद है । अपभ्रंश में आचार्य योगीन्दुदेव स्वामी ने व योगसार' 'परमात्म' प्रकाश ग्रंथ लिखे। इन ग्रंथों में पूरा समयसार झलकता
है।
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