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________________ समय देशना - हिन्दी २३८ भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरगिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥१३॥ आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ग्रंथराज समयसार जी में वस्तु के भूतार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए समझा रहे हैं, एक ही द्रव्य एक ही समय में भूतार्थ है, अभूतार्थ है। जिसके लिए यह प्रयोजनभूत है, उसके लिए भूतार्थ है। जिसके लिए प्रयोजनभूत नहीं है, वह उसके लिए अभूतार्थ है । लेकिन द्रव्य न भूतार्थ है, न अभूतार्थ है। द्रव्य तो निज स्वभावरूप है। "इदं भूतार्थं इदं अभूतार्थम्' । यह पुरुष का स्वार्थ है, द्रव्य न भूतार्थ है, न अभूतार्थ है । द्रव्य निज स्वभावभूत है। मेरे लिए जो प्रयोजनभूत है, उसे मैं भूतार्थ कह लेता हूँ। प्रयोजनभूत नहीं है तो अभूतार्थ कह देता हूँ। "किं सुन्दरं किं असुन्दरम्" द्रव्य का कौन सा गुण सुन्दर है, कौन सा गुण असुन्दर है ? बेटा कितना भी गंदा हो, मुँह गंदा हो, वह भी उसकी माँ को अच्छा लगता है, परन्तु पड़ोसी का उछलता कूदता साफ-सुथरा बेटा अच्छा नहीं लगता। फिर सुन्दर क्या, असुंदर क्या? जिसके जहाँ राग की पुष्टि होती है, उसके लिए वह सुंदर है। जिससे राग की पुष्टि नहीं होती, वह असुन्दर है । कामदेव सुंदर होता है, पर जिसको कामदेव से प्रयोजन नहीं है, उसके लिए सुंदर क्या ? चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण सुंदर होते हैं, फिर भी प्रतिनारायण के लिये नारायण को देखकर द्वेष क्यों आ जाता हैं ? इसलिए वस्तु न सुंदर है, न असुंदर है, वस्तु अपने स्वभाव में है। जिसके लिए राग होता है, तो वह सुंदर और यदि राग नहीं, तो असुंदर । सुंदर या असुंदर कहने के शब्द परार्थभूत हैं। जबकि द्रव्य का स्वभाव निज स्वभावभूत है। सभी को आप अच्छे लगते हो? नहीं लगते। भगवान् तीर्थेश सब के लिए अच्छे थे क्या ? यदि सब के लिए अच्छे होते, तो इतने मत क्यों आते, मारीचि कहाँ से आता? सत्य को समझना चाहते हो, तो तटस्थ होकर रहना पड़ेगा । मारीचि भी अपने आपको भगवान् कहता था । आज जितनी आम्नायें हैं, वह सभी सुंदर हैं यह नियम नहीं है। जिनके लिए जिनमें राग दिखता है, उसके लिए वह सुंदर है। पर सत्य न सुंदर होता है, न असुंदर होता है, वह तो स्वरूपभत होता है। सत्य स्वरूप को समझना है. तो तटस्थ होकर जीवन जीना पड़ेगा। दीवारों से और पर्दो से अपनी आँख के पर्दे को हटाना पड़ेगा । आप यहाँ आ रहे हैं, पर अपना पक्ष लेकर आ रहे हैं, तो आपको मेरी बात समझ में नहीं आयेगी, विपर्यास नजर आयेगा, और पक्ष छोड़कर आयेंगे, तो सत्य नजर आयेगा, कि वस्तु स्वरूप तो ऐसा ही है। तटस्थ शब्द माध्यस्थ का प्रतीक है। तटस्थ शब्द का प्रादुर्भाव हुआ, एक सरिता के तट पर बैठा पुरुष नदी में क्या आया, क्या गया क्या जा रहा है, क्या आ रहा है यह किसे ज्ञात है? जो तट पर बैठा देख रहा है उसे पर आप बैठकर न देखते बल्कि देखने के लिए नदी में कूद जाते, तो आप भी बह जाते। आपको आने वाली, और जाने वाली वस्तु का ज्ञान नहीं रहेगा, क्योंकि आप बह चुके हैं। जो एकान्त में बह जाता है, उसे भूत व भविष्य के सत्य का ज्ञान नहीं होता है। जो तट पर बैठकर निहारता है, उसे भूतार्थ का ज्ञान होता है। कि वस्तु स्वरूप यह है। आप किसी वक्ता की बातों में नहीं आना, आप तो तटस्थ होकर वस्तु स्वरूप को समझना। आपके पास प्रज्ञा है, क्षयोपशम है, बुद्धि है, मेघा है, तो उसका प्रयोग करो, और प्रयोग करके अनुभव करो, कि सत्यार्थ क्या है ? इसे निहारो कि किसने क्या कहा है बह मत जाओ? तब मैं उसको मानता हूँ, जो मेरे प्रिय ने कहा है, तो आप सत्य से दूर हो गये। आपका भाई किसी का पति है, आपकी भाभी कहती है कि यह मेरा स्वामी है, और आप कहते हैं कि मेरा भाई है। हे ज्ञानी ! पति कब बना, भाई कब बना Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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