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________________ समय देशना - हिन्दी २३७ उपचार, अभेदवृत्ति अभेद-उपचार, ये शब्द 'अष्टसहस्त्री' में हैं। इसी टीका में न्याय के बहुत अच्छे शब्द आने वाले हैं । द्रव्य में पर्याय उपचार, अभेद में भेद उपचार । द्रव्य की पर्याय है, अभेद में भेदवृत्ति चल रही है । क्यों ? द्रव्य, गुण, पयार्य भिन्न होती है क्या ? फिर भी क्या बोलते हो ? द्रव्य की पर्याय । यह है अभेद I भेदवृत्ति । 'महाराज की कलम', भेद में अभेदवृत्ति । कलम भिन्न है, फिर भी संबंध जोड़ रहे हैं आप । जीव का मोक्ष हो गया, जबकि जीव तो अपने आप में था ही मौजूद। जीव में जो कर्म लगे थे, उनका पृथकीकरण हुआ है, अभाव नहीं कह देना । कर्मों का अभाव नहीं होता है, पृथकीकरण होता है। कर्म का अभाव हो जायेगा, तो कार्मण-वर्गणाएँ नाश हो जायेंगी । कार्मण-वर्गणाओं का फिर लोक में अभाव हो जायेगा । और अभाव हो गया तो, अन्य जीव तो अपने आप मुक्त हो गये। क्योंकि बंधनयोग्य वर्गणाएँ नहीं बचेंगी । व्यवहार की भाषा में बोलो तो कर्म का अभाव हो गया। अरे ! अभाव नहीं हुआ, पृथकीकरण हो गया, वर्गणायें अलग हो गई हैं, कल दूसरे के काम आयेंगी, क्योंकि वस्तु तो उतनी ही है। घर में दस सदस्य थे, एक की मृत्यु हो गई, अन्य रो रहे हैं कि उसकी कमी हो गई। अरे, क्यों रो रहे हो ? जगत में न किसी की कमी हुई, न कभी होगी। जब आया था, तब किसी को रूला कर ही आया है। त्रसजीव त्रसनाली के बाहर जायेगा नहीं । स्थावर हुआ है तो जीवलोक में ही रहेगा । इसलिए किसी के वियोग में रोना नहीं, किसी के आने में हर्षित नहीं होना । इतना नहीं कर पाये, तो ध्यान दो, समयसार अभी भी नहीं आया । अनुभूति से जो ज्ञान नहीं होता, वह दृष्टि से होता है । दृष्टि का ज्ञान बहुत विशाल होता है। मुनियों का आगम में जो विहार का वर्णन है न, उसका मुख्य कारण एक यह भी है । विहार करने से मुनियों का ज्ञान बढ़ता है। घाट-घाट का पानी होता है, जगह-जगह की बातें मिलती हैं। पढ़ने से अनुभवात्मक ज्ञान ज्यादा होता है। जैन साधु यानी भ्रमणशील । इनका कोई निश्चित स्थान नहीं है । आकाश में रहते हैं, पृथ्वी पर चलते हैं। क्योंकि “वसुधैव कुटुम्बकम्' इनकी तो सारी पृथ्वी कुटुम्ब 1 हमने जो सात का निषेध किया था, उसका कारण क्या था ? दो जीव और अजीव । बाहरी दृष्टि से तत्त्व हैं, जीव और पुद्गल अनादि बंध पर्याय से, ये भूतार्थ होने पर भी एक- जीव-स्वभाव न होने पर वे ही अभूतार्थ हैं। जो नौ तत्त्व हैं, वे बंध अपेक्षा से भूतार्थ हैं। वही जीव अबन्ध दशा में निजस्वानुभूति - प्राप्त करता है, तो वे सभी अभूतार्थ हैं। सत्यार्थ दृष्टि से दोनों भूतार्थ हैं, लेकिन जब बन्ध अवस्था को निहारेंगे, तो मेरे लिए प्रयोजनभूत नहीं हैं, इसलिए अभूतार्थ हैं। सात तत्त्व है, अशुद्ध आत्मा में सातों चल रहे हैं। वही आत्मा सिद्ध बन जाये, तो सातों की सत्ता का अभाव नहीं है। आत्मा से उनका भिन्नत्वभाव हो गया, इसलिए अभूतार्थ हैं। वह जीव, जो शुद्ध हो गया, जो त्रैकालिक नौ तत्त्व हैं, लेकिन हम एक-जीव - अपेक्षा कथन करेंगे, तो नौ तत्त्व ही नहीं बचते, क्यों ? मेरा मोक्ष हो गया, एकमात्र मैं जीव तत्त्व हूँ, शेष तत्त्व मेरे से भिन्न हो गये, मेरे से तत्त्वों की सत्ता का ही अभाव हो गया, मेरे शुद्ध चैतन्य द्रव्य में आठ पदार्थों का अभाव हो गया। परन्तु जीवत्व की दृष्टि से देखेंगे तो नौ पदार्थों का ही अभाव हो गया, मैं शुद्ध चिद्रूप हूँ । प्रयोजनभूत, अप्रयोजनभूत । सत्यात्मक, असत्यात्मक । फिर भी असत्य नहीं है। वे आपके शुद्ध में नहीं हैं, परन्तु किसी में नहीं हैं, ऐसा नहीं कहना । अपना प्रयोजन है तब उसमें कहना अभाव, पर का प्रयोजन है, तब उसमें कहना सद्भाव । बंध-अपेक्षा सद्भाव, मोक्ष- अपेक्षा अभाव । फिर भी तुच्छाभाव नहीं। एक वे जो ध्यानरूप हैं, एक वे जो ध्येयरूप हैं। सप्तम गुणस्थान में जो भूमिका होती है, वह ध्येयरूप है, ध्यानरूप है, परन्तु जो सिद्ध बन चुके हैं वे ध्येयी ध्येयरूप हैं। जो सिद्ध हैं, उनमें परिपूर्ण अभाव है। जो अभी संसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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