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________________ समय देशना - हिन्दी २३६ हाथों से मर कर । अध्यात्म बड़ा नीतिमय है । बहुत गहरी बात कह रहा हूँ। कांक्षित हुआ, कलुषित हुआ, भोगों के भोगे बिना ही परिणाम मात्र से बंध हो गया। भोग कितने कर पाये आप, बन्ध कितना कर लिया ? मिलते नहीं है उतने भोग, जितना आप परिणाम करते हो । जब मिलते हैं, तब ताकत नहीं बचती आपके पास, ये बंध किसने किया है ? इन सब वृत्तियों का विनाश होगा, तब समयसार प्रारंभ होगा। समयसार का ज्ञान तो चतुर्थ गुणस्थान से कर लो, लेकिन परिणति रूप समयसार तो सप्तम गुणस्थान के पहले होता ही नहीं है। कोई प्रश्न तो नहीं है आपका । आप प्रश्न कर ही नहीं सकते। विकार भी नहीं गये, विकार्य भी नहीं गये। पकड़ो मूल वस्तु को वहाँ आप पहुँच नहीं रहे। जिसे लोग विकार बोलते हैं उसे आपने छोड़ दिया, या एक उम्र पर आ कर छूट गये। आप नील/टिनोपाल के कपड़े पहने बैठे हो, क्यों? शुद्ध भाषा में बोलो-विकार है। नील अनंतजीवों का पिण्ड है, अनंत जीवों का घात होता है इसके बनने में, इसकी पत्ती की खेती होती है? पानी में उसको गलाया जाता है, उसमें कीडे हो जाते हैं फिर उसका पाउडर बनाया जाता है. जो आप लगाते हो, सोले के कपड़े पहनते हो । अब बताओ, सोले के बचे कहाँ ? क्यों डाला आपने? विकार था, कि अच्छे दिखें, सुंदर लगें। तुम सुंदर लगोगे, क्या उससे आप सुंदर हो गये ? कपड़ों के सुंदर होने से आप सुंदर होते हो क्या? आपके बाहर के रंग पोतने से कपड़े सुंदर होते है क्या ? ये कपड़े चमक रहे हैं, कि नील चमक रही है। ये विकार आया, ये विकार हो गया, जीवों की हिंसा । आपको स्थूल विकार तो समझ में आते हैं, पर अन्दर के सूक्ष्म विकार समझ में आपको नहीं आते। दिगम्बर बन गये, 'मैं मुनि, मैं मुनि' कह रहा है। क्यों कह रहा है ? यह भी विकारी भाव है। णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सोउ सो चेव ॥६॥ समयसार यह है अविकारी भाव । मैं प्रमत्त नहीं हूँ, अप्रमत्त नहीं हूँ, ज्ञायक नहीं हूँ | क्या हूँ ? जो सो उ सो चेव । कुछ भी कहो, व्यवहार के साथ विकार भी है। न चलो, न करो, उसका नाम समयसार है । आपने चावल नहीं खाये क्या ? सफेद खाये, कि धान खाये, कि लालिमा वाले खाये ? नहीं, सफेद वाले खाये, क्योंकि प्रयोजनभूत तो सफेद ही हैं। उसी प्रकार चाहे चौथा गुणस्थान हो, चाहे पाँचवाँ गुणस्थान हो, चाहे छठवाँ गुणस्थान हो, पर सातवाँ गुणस्थान ही प्रयोजनभूत है। ज्ञायकभाव है। धान्य में चावल हैं, मानता हूँ, लालिमा में चावल है, मानता हूँ, लेकिन जो लालिमा और धान है, वह खाने के लिए नहीं है, हटाने के लिए है। छठवें गुणस्थान में अमुक कषाय, पाँचवें गुणस्थान में अमुक कषाय है, स्वीकार है। पर प्रयोजनभूत नहीं है। ज्ञायक भाव से बंध नहीं है, काषायिकभाव से बंध है। लेकिन ज्ञायकभाव में जो कषायभाव चल रहा है, वह बंध ही का कारण है। जब मैं स्वयं में एकीभूत होता हूँ, एकत्व में लवलीन होता हूँ, उस काल में पुण्य पापासव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष की अनुत्पत्ति है । न विकार है, न विकार्य है। जब विकार-विकार्य भाव नहीं है, तब बंध नहीं है, संवर नहीं, निर्जरा नहीं, मोक्ष भी नहीं। मैं तो हूँ । आत्मा का कभी मोक्ष होता नहीं। मोक्ष कर्मों का होता है, आत्मा तो निज स्वभाव में त्रैकालिक ध्रुव है। अब मैंने यह क्यों कहा? मैं तो एकीभाव स्वभाव हूँ। कर्मों का झड़ना है मोक्ष, आत्मा का झड़ना कहाँ है ? मोक्ष आत्मा का नहीं, आत्मा में है। जो आत्मा में कर्म थे, उनका आवरण हट गया । कारण-कार्य अभेद अपेक्षा से मोक्ष कहा जाता है। इस विवक्षा में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिसमें असली शब्द प्रयोग ही नहीं करते। कारण-कार्य, अभेद-उपचार, भेद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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