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समय देशना - हिन्दी पहचानो, साक्षीभाव से पहचानो, ये साक्षीभाव का दुरुपयोग चालू है। उन्मत्त हो गये, पागल हो गये, बोलेसाक्षीभाव कर रहा हूँ । अरे ! साक्षीभाव नहीं कर रहे, पागलपन कर रहे हैं । इन्द्रिय-विषयों में लिप्त किसी ने कहा ये कल शाम की रोटी है, इसे मत खाओ। नहीं, साक्षीभाव से ग्रहण कर रहा हूँ, राग-द्वेष नहीं है । अरे ! यह साक्षीभाव नहीं था, यह मोहभाव था, ये क्षुधाभाव था । साक्षीभाव ये होता है निज स्वरूप में लीन है, रोटी का विकल्प भी क्यों ? अशन, वसन, वासना इन तीनों से परे है। वास जिसका, उसका नाम है साक्षीभाव, सहज स्वभाव | अध्यात्म शास्त्रों के साथ खिलवाड़ करना यह सिद्धांत के साथ दुर्व्यवहार है । जिसके लिये आप साक्षीभाव शब्द का उपयोग कर रहे हो, अहो ! यही स्यान्दीभूत ज्ञायकभाव है। स्याद् आनंदीभूत है । यही मेरे में मेरा आनंद है। यह सहजानंद है। इसमें जिनवाणी को भी नहीं लाना, इसमें जिनदेव को भी नहीं लाना । इसमें गुरुदेव को भी नहीं लाना, इसमें किसे लाना ? आत्मा ही आत्मगुरु, आत्मा
आत्मदेव, आत्मा ही आत्मवाणी । भिन्न को लाओगे, तो स्याद् आनंदभूत वाणी का अभाव हो जायेगा। यह पराकाष्ठा, ये उत्कृष्ट प्रवृत्ति उस ध्यान रूप ऋषिश्वर की होती है, जिसने जगत के सम्पूर्ण विषयों से अपने आपको बंद कर दिया है। जो विषय चल रहे हैं, उसे अभावरूप नहीं मानना । ऐसा भी नहीं सोचना कि हो नहीं सकता, यदि ये नहीं हो सकता, तो विश्वास रखना, जगत् में सर्वज्ञ तत्त्व की और सिद्ध तत्त्व की कोई सिद्धि नहीं है। यह समवसरण का वैभव, ये सब प्रवृत्ति रहेगी, लेकिन जब भी सिद्धत्व की सिद्धि होगी, तो स्यान्दीभूत सहजानंद से ही होगी। जो बाहर का कथन है, तीन अनुयोगों में है, और जो भीतर का कथन है, द्रव्यानुयोग में है। बस, प्रज्ञा तो प्रज्ञा ही को ग्रहण करती है। कैसे करेगी ये प्रश्न करो। जैसे कि तस्वीर में पर की तस्वीर दिखती है, परन्तु दर्पण में तेरी ही तस्वीर तुझे ही दिखती है।
मेरे हाथ में दर्पण, और मैं ही देखनहार। मैं ही देख रहा हूँ, मुझको ही देख रहा हूँ। जो तेरे पास हमेशा है, फिर भी तू उस मुख को देखता है । यथार्थ बताऊँ, आयु के निषेकों को गिना जाये, तो कितने सारे निषेक आपने दर्पण के सामने खड़े होकर नष्ट किये हैं। दिन में तीन-चार बार दर्पण देखा। इतना ही नहीं, भगवन् अर्हत के पीछे दर्पण लगा था, उसमें भी जब झाँक कर देखा था । तब भगवान नहीं देखे, अपना ही चेहरा देखा। वहाँ पर भी भगवान अच्छे नहीं लग रहे थे। वहाँ छुपकर अपना चेहरा देखा था, वह अच्छा लग रहा था । ओहो ! अपने आपको देखने में बड़ा अच्छा लगता है। जहाँ खाना भी नहीं था, पीना भी नहीं था, सोना भी नहीं था, अन्य कुछ भी नहीं था, फिर भी इस चेहरे को देखने में अच्छा लग रहा था। और जब चर्म की देह को देखने में अपने में अच्छा लगता है, तो अपने अचर्म स्वरूप को जानने में अच्छा क्यों नहीं लगता? यह प्रज्ञा से प्रज्ञा को देखो । दर्पण में अपने से अपने को आप में देखते हो। इसलिए ज्ञान को मुकुट, तलवार, पत्थर की उपमा नहीं दी गई, दर्पण की उपमा दी गई है। "दर्पण तल इव सकला" आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने भी दर्पण की उपमा दी, आचार्य समंतभद्र स्वामी ने दर्पण की उपमा दी ।
जैसे आप दर्पण में अपने आपको निहारते हो, चेहरा देखते-देखते अघाते नहीं हो, ऐसे ही राग की स्निग्धता से शून्य निज चैतन्य ज्ञानधन दर्पण में जब मैं अपने आपके ही प्रतिबिम्ब में निहारूँ, तब सदियाँ नहीं, अनंतकाल बीत जायें, फिर भी मैं अपने में अपने को देखकर अघाता नहीं हूँ, यही शुद्ध चिद्रूप सहजानंदी स्वभाव-भाव है । स्वरूप का व्याख्यान पुद्गल के दृष्टांत से समझाया जा सकता है, लेकिन पुद्गल से स्वरूप को प्राप्त नहीं किया जाता ।
यह समझाने की भाषा मात्र समझना । अज्ञानी लोग मालूम क्या कर रहे हैं। इन पौद्गलिक द्रव्यों के
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