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समय देशना - हिन्दी
२३४ ध्यान में ही निज ध्येय को भूल रहे हैं। कोई दर्पण से साक्षीभाव बनाये है, कोई बल्ब पर साक्षीभाव बनाये है, तो कोई स्त्री पर बनाये है, तो कोई पुरुष पर बनाये है। साक्षीभाव पर बात करके पापों में साक्षात्कार कर रहे है। यह आज के ध्याताओं के द्वारा हो रहा है। गृहस्थी से क्लान्त हो जाते है, इसलिए वे अन्य स्थानों पर जाते है और वहाँ जाकर थके-थकाये पहुँचते हैं, तो विश्राम मिलता है, और वे समझते हैं, कि आत्मा की अनुभूति हो रही है। अरहंत के बिम्ब को देखना परगत तत्त्व है, स्वयं के बिम्ब को देखना भी परगत तत्त्व है, वह भी दर्पण में देखना । परगत क्यों? क्यों कि जो परगत में आपका बिम्ब है, वह पर्याय का है । दर्पण भी पर है, पर्याय भी पर है। तेरा निज बिम्ब का राग भी परगत तत्त्व ही है। ये जो तेरहवीं गाथा की टीका चल रही है न, यही तो कह रही है। एक निर्णय पहले कर लेना इस ग्रंथ में जो भूतार्थ-अभूतार्थ शब्द का प्रयोग हो रहा है, इसे पाँच पापों वाला असत्य ग्रहण मत कर लेना । जो असत्यार्थ शब्द चल रहा है, उसे पाँच पापों वाला असत्य ग्रहण मत कर लेना। क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापों में असत्य शब्द का प्रयोग है, वह असत्य और व्यवहारनय असत्य दोनों अलग-अलग हैं। यहाँ असत्य शब्द का अर्थ तत्काल में तत्क्षण में अप्रयोजनभूत है । असत्यार्थ कहना, लेकिन वह असत्य नहीं। असत्यार्थ कहना, क्यों ? मैं नौ तत्त्वों को जानता हूँ, और नौ तत्त्वों का श्रद्धान सम्यक्त्व है यहाँ कथन किया, वही नौ तत्त्वों का श्रद्धान करते हुए, वही ज्ञाता निज को ही ज्ञेय बनाता है तब सात, आठ तत्त्व अथवा परभूत नौ तत्त्व अभूतार्थ हो जाते है । एकमात्र स्वतत्त्व ही भूतार्थ है, प्रयोजनभूत । यहाँ हमने परतत्त्वों को भूतार्थ बोल दिया । क्या ये परतत्त्व असत्य हैं ? यदि असत्य हैं, तो सम्यक्त्व के कारण कैसे? और सम्यक्त्व के कारण हैं, तो असत्य कैसे?
अब आपके दृष्टांत को सुनो। आपकी शादी में आपके पिताजी गये थे, कि नहीं। पिता के सामने बेटे को ऊपर बैठना चाहिए, कि नीचे? नीचे बैठना चाहिए, फिर जब आप घोड़े पर गये थे, तब पिताजी कहाँ थे? पैदल चल रहे थे। आपको शर्म नहीं आई कि पिताजी पैदल चल रहे है और तुम घोड़े पर बैठे हों, और पूरी समाज के सामने आपने अपने पिता का अनादर किया? पिता के जमीन पर चलते हए भी पत्र के घोडे पर बैठे हुए भी पुत्र तो पुत्र ही रहेगा, पिता तो पिता ही रहेगा, पर शादी पिता की नहीं होने जा रही थी, बेटे की होने जा रही थी, इसलिए मुख्यार्थ बेटा था, पिता नहीं थे। मुख्यार्थ- भूतार्थ पुत्र था, तो पुत्र पिता के पास होने पर भी घोड़े पर बैठा है, फिर भी इस जगत् में कोई यह नहीं कहता है, कि बेटा पिता का अविनय कर रहा है। वह आपने अविनय नहीं किया, पिता की आज्ञा से बैठे थे। इसी प्रकार से जो भूतार्थ होता है, उसे प्रधान किया जाता है, और जो अभूतार्थ होता है, उसे गौण किया जाता है, पर अभाव नहीं किया जाता है। जब व्यवहार प्रधान होता है तो निश्चय अभूतार्थ होता है, और जब निश्चय प्रधान होता है, तो व्यवहार अभूतार्थ होता है, लेकिन सत्यार्थ दोनों ही होते हैं । स्व-स्व अपेक्षा । उभय नाम का कोई भंग नहीं है। विकार-विकारी उन्हीं दोनों को ग्रहण करना, अलग से तीसरा भंग नहीं बनाना । विकारी, विकार्य, विकार्य होने योग्य और विकार हुआ ऐसा जो सभी तत्त्व में जो उभय शब्द का प्रयोग है वह तीसरा भंग नहीं बनाना, उन दोनों ही का युगपत् ग्रहण करना। विकार्य विकारी नहीं होता। विकार्य होते हैं तो विकार होते हैं । विकार्य यानी खोटा कार्य, अशुभकर्म । अशुभकर्म से अशुभकर्म हुआ, कि अशुभभावों से अशुभ कर्म हुआ ? विकार्य दिखते हैं और विकार होते हैं। विकार न होते तो विकार्य क्यों दिखते? कोई कहे कि मैं चिद्रूप भगवान्-आत्मा हूँ। फिर धीरे से पूछ ले कि ये कौन बैठा हैं ? ये मेरा लड़का है। हे पापी, "प्रत्यक्षं किं प्रमाणं''। विकारी का विकार्य न होता, तो बेटा कहाँ से आता ? तू कार्य का भगवान्-आत्मा है। तू तो विकारों का विकारी है। विकार्य सामने बैठा है
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