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समय देशना - हिन्दी
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२३२ है । हमारे 'समयसार' के साथ आपने क्या किया? ये हमारा 'समयसार' डाक्टरों के हाथ लग गया। गर्भस्थ शिशु स्वस्थ है या नहीं, इसको देखने के लिये डॉक्टर को मशीन दी जाती है। पर इन डॉक्टरो ने उस मशीन को भ्रूण परीक्षण में लगा दिया, और भ्रूणहत्या करना प्रारंभ कर दिया। जब तुम्हारे पास न चारित्र आया, व्यवहार आया, जब तुम गर्भस्थ थे धर्म में, उस गर्भस्थ अवस्था में ही अपनी भगवान् - आत्मा को जान लो, इसलिए आपको 'समयसार' दिया था। पर तुमने उसमें भगवान मान लिया है। इससे कठोर कोई दृष्टान्त नहीं है। आप बोल देना कि सोनोग्राफी मशीन का दुरुपयोग मत करो, ये समयसार सोनोग्राफी मशीन है, अन्दर की वस्तु को बताने वाली है। उस मशीन से समयसार नहीं बना, समयसार से मशीनें बनी हैं। विकार होतो, विकार्य न हो । मन में अशुभ भावना न आये, तो अशुभ कार्य न हो (चरणानुयोग की भाषा में) । ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
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आचार्य-भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी ग्रंथराज 'समयसार' जी में नौ तत्त्वों की प्ररूपणा कर रहे हैं । प्रत्येक तत्त्व- कार्य है, विकार्य है।
जैसे आस्रव होने योग्य, और आस्रव करने वाला, यथार्थ में यह जीव तत्त्व ऐसा है । यह अपने आप में अपने आपको संभाल ले, तो शेष तत्त्व शून्य हो जाते हैं। दो ही तत्त्व हैं, जीव और पुद्गल । जीव के रागादिक भाव हुए, सो संयोगभाव आस्रव, संयोगभाव बंध, संयोगभाव ही संवर, संयोगभाव ही निर्जरा । संयोगभाव का अभाव ही मोक्ष है। जीवतत्त्व जो एकत्व - विभक्त स्वरूप पर चला जाये और शेष को गौण कर दे, अपने आप को सबसे परे कर दे, तो बाकी जो तत्त्व हैं, वे समाप्त हो जाते हैं। शुद्धात्मा में कितने तत्त्व हैं? एक तत्त्व है, वह एकमात्र जीवतत्त्व है । और वह जो जीव तत्त्व है, वह एकीभाव है, शुद्धचिद् ज्योतिस्वरूप है। जो कलश सातवाँ आपने पढ़ा था, उसमें अंतिम लाइन
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नव तत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति ॥७॥ अ.अ. क. ॥
नव तत्त्व को जानते हुए एकत्व को नहीं छोड़ता । जीवतत्त्व जो है, वह तो तत्त्वों का ज्ञाता है। पर ज्ञातृत्व भाव से नौ तत्त्वों का अनुभवकर्त्ता भी है। फिर भी शुद्धचिद्रूप भाव से देखो तो नौ तत्त्वों का ज्ञाता है, पर नौ तत्त्व का अनुभवकर्त्ता भी है। एकीभाव रूप से नौ तत्त्वों का वेदक नहीं है। तादात्म्यरूप से एक तत्त्व काही वेद है । तन्मयभूत होकर आप दूध पीते हो, उसका स्वाद भी लेते हो। जो आपको अपने ज्ञान का वेदन है, वैसा दूध का वेदन नहीं है। चिन्तन करके सुनना है, क्योंकि पूर्व की अपेक्षा से वर्तमान में कुछ कठिन चल रहा है, सिद्धांत चल रहा है। दूध का वेदन करने के लिए जीभ हिलानी पड़ती है, कंठ में निगलना पड़ता है । दूध के वेदन के लिए बर्तन को अधरों पर रखना पड़ता है। दूध का वेदन तन्मयभूत नहीं है, परन्तु निज ज्ञान का जो वेदन है, वह पर-निमित्तों से परिपूर्ण परे होकर वेदा जाता है। निज ज्ञान का वेदन एकीभूत है, दुग्ध का वेदन पराभूत है और वह जिह्वा इन्द्रिय के आश्रित, परभूत है । लेकिन ज्ञान का वेदन जिह्वा से नहीं, नेत्रों से नहीं, स्पर्श से नहीं, ज्ञान का वेदन तो ज्ञायकभाव से ही है। जब पर-वस्तु का वेदन करना चाहेंगे, तो आपको जिह्वा इन्द्रिय चाहिए । ज्ञान का वेदन ज्ञान के लिए करोगे, तो कोई इन्द्रिय नहीं चाहिए । कठिन इन्द्रिय वेदन नहीं है । कठिन अनिन्द्रिय वेदन भी नहीं है । मन का चिन्तन भी कठिन नहीं है। कठिन हैं ज्ञान से ही ज्ञान की अनुभूति लेना, प्रज्ञा से ही प्रज्ञा को पहचानना । देखो, मैं बहुत ऊँची बात बोल रहा हूँ। आज इस शब्द का प्रयोग लोगों ने भोगों में कर दिया है। प्रज्ञा से प्रज्ञा को पहचानो, सहजभाव से
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