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समय देशना - हिन्दी
२३१ हो जायेगी, और वीतरागी के मुख से आयेगी, वह शीतल होकर आयेगी। चारों अनुयोगों को पढ़ने का अधिकार है आपको, पर अपनी प्रज्ञा को तौलकर ।
इस तेरहवीं गाथा की जो टीका है, उसमें सम्पूर्ण निश्चय व्याख्यान का कथन किया है। तीर्थ की प्रवृत्ति में व्यवहार भूतार्थ है क्या ? यदि आगम तीर्थ की प्रवृत्ति चाहते हो, तो आत्मा-आत्मा कह कर आत्मा को नहीं पहचाना जाता । आत्मधर्म की प्राप्ति का मार्ग व्यवहार रत्नत्रय है, और व्यवहार रत्नत्रय को प्राप्त करके जो निश्चय में प्रवेश करता है, वह निश्चय तीर्थ है। अन्यथा पानी गर्म है, गिलास में भरा है, तो यथार्थ बोलना, गिलास गर्म होगा, कि नहीं होगा? तो गिलास गर्म है क्या? गिलास गर्म है कि, पानी गर्म है? दोनों ही गर्म नहीं हैं। गर्म कोई भिन्न था, उसका नाम था अग्नि। अग्नि के संयोग से पानी गर्म हुआ और गर्म पानी के सहयोग से गिलास गर्म हुआ, पानी का धर्म तो शीतल था । आत्मा अशुद्ध है, कषायी है? नहीं। कर्म का पिण्ड पर भाव है। पर
परभाव के संयोग से कषायभाव है। कषायभाव से आत्मा में विकार भाव है। आत्मा तो त्रैकालिक शुद्ध स्वभावी है । कर्म का वह विकारभाव हट जाये, तो कषायभाव चला जाये, और कषायभाव चला जाये, तो विकारभाव चले जायें, और विकार भाव चले जायें, तो भगवान-आत्मा है।
समयसार का काम तो यह है, कि जहाँ जैसा हो, उसे वैसा बता देना। अब क्रिया करना तुम्हारा काम है। भूल तुम वहाँ कर रहे हो, हम क्या करे? आप चावल के इंदरसे (पकवान) बनाते हो, पर एक से बन जाते हैं, दूसरे से बिगड़ जाते हैं, क्यों? क्योंकि कहीं-न-कहीं विधि में गड़बड़ी की होगी। इसी प्रकार आप सभी को पिच्छि कमण्डलु दिये थे, जिनमुद्रा दी थी, पर एक नरक चला गया, दूसरा स्वर्ग चला गया, तीसरे सिद्ध बन गये। कहीं-न-कहीं गड़बड़ी विधि में की होगी। विधि करना ही तो पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ कौन-सी वस्तु है? विधि ही तेरी विधि को बनाती है, विधि ही तेरी विधि को बिगाड़ती है। यह ग्रंथ उभयनय-प्रधान है। भीतर की विधि को बताता है, और भीतर के पुरुषार्थ को जगाता है और बाहर की विधियाँ, बाहर के पुरुषार्थ को गौण करता है, अभाव नहीं करता । बहुत अन्तर है। चावल , घी सभी सामग्री दी थी, फिर भी इंदरसे बिगड़े क्यों ? बाहर की विधि पूरी बना दी थी, अन्दर की विधि बिगाड़ी है। इंदरसे बिगड़े क्यों? इंदरसे बनाने में समय लगता है। इस आत्मा को आज ही भगवान बना देना चाहता है। तीर्थंकर-जैसी भगवान्-आत्माओं ने दस-दस भव बनाने के लिए दिये हैं । मैं इंदरसे की बात नहीं कर रहा हूँ। यह भोजनकथा है। तीर्थंकरजैसी आत्मा ने दस-दस भव दिये हैं, तब दस भव में पक पाये हैं। पूछो पारसनाथ स्वामी से, आदिनाथ स्वामी से, कोई भी तीर्थंकर से पूछो, नौ भव बनाने में लग गये, दसवें में बन पाये । यही कारण है, कि तत्त्वार्थसूत्र कर्ता ने बड़े दिमाग से दस अध्याय लिखे। नौ अध्याय बनाने के है, दशवाँ अध्याय प्राप्ति का है । अन्त में मोक्ष का वर्णन किया। 'सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' स्वरूप बता दिया। अब आगे चलते चलो । शास्त्र का अभ्यास सतत् करना, कोई अनुयोग समझ में न आये, कोई विकल्प नहीं करना, लेकिन अनुयोग पर श्रद्धा मत डाँवाडोल कर लेना। क्योंकि आप स्याद्वादी हैं । कषाय की तीव्रता में मारीच को तीर्थेश की बात समझ में नहीं आई, और कषाय की मंदता में सिंह की पर्याय में दो चारणऋद्धिधारी की बात समझ में आ गई, स्वरूप-संबोधन हो गया। (शुद्धनय से) विकार न होवे, तो विकार न आये, जब-जब भी जीव संयम से च्युत हुए, विकार आये हैं पहले।
द्रव्यानुयोग का मुख्य लक्षण है, संबंधों को गौण करके स्वभाव में ले जाना । चाहे श्रमण हो, चाहे श्रावक हो, आपत्ति/विपत्ति सबको आती है। इसमें समन्वय बैठाने वाली कोई वस्तु है, उसका नाम द्रव्यानुयोग
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