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________________ २१५ समय देशना - हिन्दी स्वरूपाचरण कौन से नम्बर का चारित्र है? ये चारित्र नहीं है। ये कर-पटल है, इसमें रेखायें हैं। हाथ रेखा है, कि हाथ में रेखायें है ? यही कथन होगा हस्तरेखा, न कि रेखा-हस्त । ध्यान दीजिए। चारित्र है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि , सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात । उसमें चरण करना इसका नाम है स्वरूपाचरण । मार्ग पर चला जाता है पथिक के द्वारा, लेकिन पथिक 'मार्ग' नहीं होता, मार्ग पर पथिक चलता है। चारित्र में चलने का नाम स्वरूपाचरण है। स्वरूपाचरण नाम का चारित्र आगम में नहीं है। कहीं हो तो बता देना। "सुनिये स्वरूपाचरण अब'' वह कारण में कार्य का उपचार है। अब निश्चय चारित्र सुनो। ___ संयमाचरण छटवें गुणस्थान से प्रारंभ है, इसलिए उसमें प्रवृत्ति विभावरूप है । तो ७ वें गुणस्थान से स्वरूप में चरण हो भी सकता है, लेकिन संज्ज्वलन का मंद उदय होगा। फिर नमस्कार करूँ, स्तुति करूँ, वंदना करूँ, प्रतिक्रमण करूँ, तो विषकुंभ है। इसलिए वहाँ निज में आचरण कर रहे हैं, वह स्वरूप में चरण चल रहा है । पाँचों ही चरण स्वरूपाचरण हैं और परमस्वरूपाचरण यथाख्यात है। प्रश्न - प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने ही छेदोपस्थापना का कथन किया है जबकि शेष बाइस तीर्थंकर ने सामायिक-संयम का ही कथन किया है। क्या कारण है ? उत्तर - महावीर के शिष्यों के बारे में पूछने की आवश्यकता है नहीं, क्योंकि वक्र परिणामी हैं, अपनी चर्चा छोड़कर पर की चर्चा में लीन हो जाते हैं। और आदिनाथ के शिष्य अति भोले हैं। अति भोलेपन में संयम का पालन नहीं होता क्योंकि जिसने जैसा कह दिया, वैसा मान लिया। ऐसा क्यों किया? उन्होंने कहा था, तो हमने कर लिया। अरे ! उनने कहा, सो नहीं करना। 'जिन' ने जो कहा, वह करना। 'चाहे उनने कहा हो, चाहे 'जिन' ने कहा हो, हमारे मन को जो अच्छा लगेगा, वह करूँगा'-यह महावीर के शिष्यों की महिमा है । इसलिए छेदोपस्थापना चारित्र है। प्रतिक्रमण में कितनी बार कहते हैं , पर उसमें मन लगा तो छेदोपस्थापना, नहीं तो किंचित भी मन में विकल्प टकरा गया, यहाँ-वहाँ की चर्चा मस्तिष्क में आ गई है, तो हे भगवन्! तस्य मिच्छामी दुक्कड कहकर तुरंत कायोत्सर्ग करना चाहिए। गोमटेश में आचार्य पद्मनंदि महाराज की एक बात अच्छी लगी। मैं आचार्य श्री विरागसागर के साथ चल रहा था। इतने में आचार्य पद्मनंदि महाराज ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा - मन चंचल है, रूकता तो है जाने के बाद भी तो कछ किया जा सकता है? पंचमकाल है, दोष हो जाये वह दोष है, दोष को नहीं मानना महादोष है । दोष में संतुष्ट कभी नहीं होना । दोष को दोष मानते रहना । कुछ नहीं कर पाओ, तो णमोकार मंत्र की माला फेर लेना। दुनियाँ कुछ भी कहे, पर तुम ध्यान रखना । प्रायश्चित्त एक तप है, जिससे कर्म निर्जरा होगी। मैंने कहा कितनी सुन्दर बात बताई। जब तुम्हारे मन में प्रायश्चित्त के भाव आये थे, तभी प्रायश्चित्त हो गया। चित्त-शुद्धि हो गई, फिर प्रायश्चित्त क्यों लेना ? अरे ! यही तो वक्रता है महावीर स्वामी के शिष्यों की । नहीं हुआ प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त लेने के भाव आये। चित्त में विशुद्धि आ रही थी, लेने पहुँच गये, स्वीकार कर लिया, प्रायश्चित्त हो गया। चित्त की शुद्धि का नाम प्रायश्चित्त है। गुरु चाहे छोटी गलती का बड़ा प्रायश्चित्त दे दे चाहे बड़ी गलती का छोटा प्रायश्चित्त दे दे, शिष्य के चित्त की शुद्धि को देखकर । कितना गहरा है। छेदोपस्थापना राजमार्ग नहीं है, अपवाद मार्ग है। कोई आपसे बोल सकता है, कि पाँच प्रकार का लिखा, फिर भी अपवाद क्यों बोल रहे हो? यह प्रश्न हो सकता है। जिसने अल्प शास्त्र पढ़े, वह क्या नहीं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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