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समय देशना - हिन्दी
२१४ है। सबसे खतरनाक कोई वस्तु है, तो वह है पुण्य, जिसके योग में जीव अशुभ कर्म कर निजात्मा को संसार पंक में फंसाकर दु:ख को प्राप्त होता है। पुण्य पाप के उदय में साम्यभाव रखो। ।
__ ये विद्वानों की लाइन बैठी है, ये क्या कम विद्वान है? कम नहीं हैं। वाचना में पं. परमानंद जी शाहगढ़ थे, जो उच्च कोटि के विद्वान् थे, फिर भी बहुत ही सरल, सहज थे। 'धवला जी की ८ वीं पुस्तक की वाचना चल रही थी, बाहर से विद्वानों को बुलाया गया, पर पं. परमानंद जी ने अपनी विद्वत्ता कभी नहीं बताई । वाचना शुरु हुई, पहले ही दिन जो बाहर के विद्वान थे, वे टीका नहीं लगा पाये। धवला टीका कठिन पड़ती है। उसका नाम मक्ताहार टीका है. मणियों के बीच में मक्तामणि लगाया जाता है, तब वह संदर बनता है। ऐसे ही धवला टीका है। पूरी टीका प्राकृत में नहीं है, न संस्कृत में है। प्राकृत टीका में बीच-बीच में संस्कृत टीका है। इसलिए उसका नाम है मुक्ताहार टीका । अब जब जिस विद्वान् को बुलाया था, वे नहीं लगा पा रहे थे तब पं. परमानंद शास्त्री अपनी भाषा में कहते हैं, इनको हम देखे क्या। आचार्य श्री ने कहा- हाँ, पं. जी आप तो कर लेंगे, आइये न। जैसे ही पं. साहब को बैठाया, खटाखट पूरी टीका कर दी। फिर क्या था, पूरी वाचना उन्होंने की। उनसे कहा आप इतने बड़े विद्वान्, आपने बताया नहीं। उन्होंने कहा- हाँ, आचार्य श्री! मैने न्याय, व्याकरण, नय, न्याय सब पढ़ा है, पर हमारी प्रकृति ऐसी है कि हम कह नहीं पाते। उन्होंने संस्कृत में छन्द लिखे हैं। ऐसे भी ज्ञानी जीव हैं, जिन्हें ज्ञान है, पर मान-सम्मान में पड़ते नहीं।
ऐसे भी ज्ञानी जीव हैं जिन्हें ज्ञान नहीं है, पर वक्तृत्वपना है, इसलिये लोक में छाये हैं, पर उनसे पूछना एक प्रश्न कोई गहरा, तो वह बता नहीं पायेंगे। आप अपनी उत्साह शक्ति को भंग मत करना। तत्त्व के विपर्यास का जो प्रशिक्षण चल रहा है, उसे आप भी चार विद्वानों में शुरू करो। कोई प्रचार की आवश्यकता नहीं। सुगंध होती पुष्प में, तो वह चारों तरफ अपने आप फैलती है। पं. दौलतराम जी कौन-से कॉलेज में पढ़ने गये थे? कौन से विद्यालय में आपने धर्म का अध्ययन किया ? अरे ! कपड़े बेचते-बेचते छहढाला बना लिया । आप कल्पना करो। गोपालदास बरैया मुंशी थे। उस जीव की रुचि बढ़ी तत्त्व के प्रति, तो उन्होंने विद्वानों की बड़ी लम्बी पंक्ति खड़ी कर दी । उनके विद्यालय से मक्खनलाल शास्त्री जैसे विद्वान् निकले । पर उनकी दृष्टि 'पंचाध्यायी' पर जाने से मुरैना-विद्वान्-परम्परा में, चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानते है। अष्ट पाहुड में आ. कुन्दकुन्द सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहते हैं। पंचाध्यायी' ऐसा ग्रंथ है, जिसमें अनंतानुबन्धी कषाय के अभाव में स्वरूपाचरण चारित्र लिखा है। पाँच प्रकार के चारित्र में स्वरूपाचरण कोई चारित्र नहीं है। (अधः करण रूप परिणाम काल में व ध्यान में श्रेणी आरोहणकर्ता जीव को स्वरूपाचरण अर्थात् स्वरूप में रमण होता है।)
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने 'प्रवचनसार' जी में "चारित्रं खलु धम्मो' सातवीं गाथा की टीका में जो साम्य का कथन किया है, उसको लेकर लोगों ने विपर्यास कर लिया । उन्होंने कहा - स्वरूपाचरण अर्थत् स्वरूप में आचरण करना, ये चारित्र है। लेकिन स्वतंत्ररूप से कोई स्वरूपाचरण नाम का चारित्र नहीं है। आ. जयसेन की टीका पठनीय है। सप्तम गुणस्थान से जो चारित्र है, वह सब स्वरूप में जाता हैं, स्वरूप में चरण
___ "यों है सकल संयम चारित , सुनिये स्वरूपाचरण अब''||६/७ छहढाला ॥ __ इस प्रकार से सकल संयम को कहा, यानी व्यवहार-चारित्र सराग संयम चारित्र हो गया न । फिर श्रेणी आरोहण काल में चलता है स्वरूपाचरण । लेकिन वहाँ पर भी स्वरूपाचरण का अर्थ स्वरूप में चरण लगाना।
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