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________________ समय देशना - हिन्दी २११ तदपि परममथ चिच्चमत्कार मात्र, परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ।।५।। अ. अ. क.|| __ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कुन्दकुन्द की बात को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि हमारा सिद्धांत एकान्तिक नहीं है। एकान्तिक हो जायेगा, तो दूषित हो जायेगा । अनेकान्तिक भी नहीं है, वह भी दोष है। अभी पहले आपने देखा असिद्ध, विरूद्ध, अनेकान्तिक, अकिंचित्कर ये चार हेत्वाभास । जो लक्ष्य में भी जाये, अलक्ष्य में भी जाये, वह है अनेकान्तिक दोष । अनेकान्त दर्शन हमारा है, अनेकान्तिक हेत्वाभास नहीं है। बड़ा गहरा तत्त्व है । अनेकान्त सिद्धान्त है, पर अनेकान्त हेत्वाभास नहीं है । कारण कि अनेकान्त भी एकान्त नहीं है, अनेकान्त भी अनेकान्त है। अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः । अनेकान्तः प्रमाणात् ते, तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ।।१०३।। स्वयंभू स्तोत्र।। हर जगह अनेकान्त नहीं लगाना, नहीं तो वर्तमान की पर्याय की प्रत्याशक्ति में कोई पिता अपनी बेटी को पत्नी कहने लग जाये, और कहे कि अनेकान्त दर्शन से लगा लीजिए। अरे !नहीं लगाना अनेकान्त से, क्योंकि पर्याय की प्रत्याशक्ति यहाँ ग्रहण करना । इस पर्याय में वह आपकी पत्नी नहीं है, नहीं तो व्यभिचार कर बैठोगे । इसलिए हमारे आचार्यों ने बड़ा सोचकर लिखा है, कि अनेकान्त भी अनेकान्त है। वस्तुस्वरूप की सिद्धि भी अनेकान्त है । वस्तु के तद्भाव में अनेकान्त नहीं है, वह अनेकान्त दोष है। कोई जीव कहे कि हमारी माँ अनेकान्त से हमारी पत्नी भी है। अनेक पर्यायों की अपेक्षा से लगाओगे तो मान सकते हैं। किसी पर्याय में हो। लेकिन, हे ज्ञानी ! वर्तमान की पर्याय में अनेकान्त नहीं लगा सकता हैं, कि तेरी माँ तेरी पत्नी है। अन्यथा आज तक महावीर का शासन चल नहीं सकता था। अनेकान्त का दुर्व्यवहार हो जाता न तो चार्वाक दर्शन इसी देश में जन्मा है. लेकिन जीवित क्यों नहीं बचा? सब छोडो। जहाँ समाप्त हो गई, वहाँ भारतीय दर्शन स्वीकार नहीं करता। __ अनेकान्त नीति है, अनेकान्त अनीति नहीं है । अनेकान्त न्याय है, अनीति नहीं है । हे ज्ञानियो ! सिद्धांत पर करुणा इतनी रखना, सिद्धांत में अनीति मत करना। ___ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कितना संभल कर कह रहे हैं । ये नीति चल रही है अध्यात्म की। जो प्रारम्भिक लोग हैं, नय सीखनेवाले हैं, मोक्षमार्ग पर चलनेवाले हैं, उनके लिए प्रथम पद है। उनको मोक्षमार्ग पद पर रखने के हस्तावलम्बन है क्या ? व्यवहार हेय नहीं है, हस्तावलम्बन है। लेकिन आप सीढ़ी चढ़ रहे थे, किसी ने हाथ पकड़कर आपको सहारा दे दिया, तो चढ़ गये, तब भी हाथ को पकड़े रहोगे क्या ? ध्यान दो, बस व्यवहार ऐसा ही है । चढ़ रहे थे तो हाथ का सहारा ले लेना चाहिए। जब चढ़ जायें, तो छोड़ दो। इतना है व्यवहार का काम । फिर भी परमार्थ से जो चित्-चमत्कार मात्र निज शुद्धात्मा है, वह परभावों से रहित है। अन्य कोई भी मेरे लिए उपादेयभूत नहीं है । एकमात्र चिद्रूप मेरी अखण्ड आत्मा ही उपादेयभूत है, ये निश्चयनय है। अब बताओ, दोनों नयों में विकल्प कहाँ है । एक हस्तावलम्बन है एक पैर है । चलना तो पैरों से ही पड़ता है, लेकिन जब डगमग होने लगते हैं , तो दूसरे के हाथ का सहारा लेना पड़ता है, और जब आप स्थिर हो गये, तो उसे छोड़ दो। लोकव्यवहार में आप रोज देखते हो, बुजुर्ग को हाथ का सहारा देकर बैठाते हो, फिर हाथ छोड़ देते हो। ऐसे ही जब शुद्धात्मा मिल जाये, तो हाथ छोड़ देना। इतना-सा तत्त्व का बोध है, यही मोक्षमार्ग है। ॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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