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________________ २१२ समय देशना - हिन्दी आचार्य-भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी बड़ी सहजभाषा में कह रहे हैं, नय-नय को लेकर विकल्प करने वाले के नय पक्ष को छोड़े बिना विकल्पातीत होना कभी संभव नहीं है और ध्रुव सत्य यह है, कि जगत का जीव नयार्थ को गौण करके एकान्त से नय को पकड़ हुये है। अज्ञ प्राणियों ने नयार्थ को न समझते हुए नय को पकड़ लिया है। नयार्थ कहता था, कि अमुक अर्थ के प्रयोजन से प्रयोग किया जाता हूँ। जैसे कि निश्चयनया यह तो भाषा है, पर निश्चयनय का प्रयोजन क्या है, नयार्थ क्या है ? वस्तु के भूतार्थ स्वरूप को समझना, यह निश्चयनय का अर्थ था । व्यवहारनय का अर्थ क्या था? वस्तु की व्यवस्था को भेदरूप में समझना। परन्तु हो पर ध्यान गया नहीं, नय पर ध्यान चला गया। स्वरूप और नय मात्र को लेकर विकल्पों में आकर कि हम निश्चय वाले हैं, हम व्यवहार वाले हैं, विवाद में चला गया, नयार्थ में नहीं गया । नयार्थ का नया अर्थ कर बैठा, कि मैं अमुकवाला हूँ। लेकिन नयार्थ का अर्थ अमुकवाला नहीं था। नयार्थ का अर्थ था अभेद अर्थ को जानना, भेद अर्थ को जानना । स्त्री, पुरुष, नंपुसक भेद अर्थ को कह रहा है। पुरुष आत्मा अभेद अर्थ है। स्त्री है, उसमें भी आत्मा है। 'कहना' शब्द जब-तक जुड़ा है, तब-तक नयार्थ है और कहना' समाप्त हो जाये, तो वस्तु वस्तु है। निश्चय स्वरूप की अनुभूति अवक्तव्य है, पर निश्चय स्वरूप अवक्तव्य नहीं है यह भी ध्यान रखना । यदि निश्चय स्वरूप अवक्तव्य हो जायेगा, तो 'आत्मप्रवाद पूर्व' का अभाव हो जायेगा। जो निश्चयस्वरूप है, वह वक्तव्य है, और जो व्यवहारस्वरूप है, वह वक्तव्य है। अनुभूतियाँ दोनों की अवक्तव्य हैं। यदि दोनों को व्यवहार की कह दोगे तो दोनों की भाषा एक हो जावेगी जबकि दोनों की भाषा भिन्न-भिन्न है, दोनों के भाव भिन्न-भिन्न हं , पर दोनों का प्रयोग व्यवहार से है, फिर भी अभिप्राय निश्चय का है, और व्यवहार का है। कथन जो भी चलेगा, वह द्वैतरूप में मुख्यता व गौणता से चलेगा। अनुभूति इन्द्रियों की होगी, तो द्वैत होगी और स्वात्मा की होगी, तो अद्वैत होगी। इन्द्रियों का वेदन द्वैत है, स्वाद जिसका लिया जा रहा है और लेने वाला, यह द्वैत भाव है, परन्तु स्वादानुभूति जो है, वह अपने आप में अद्वैत है। इसलिए अनुभूति अवक्तव्य है, वक्तव्य-अवक्तव्य नहीं है । वक्तव्य -अवक्तव्य हो जायेगा, तो वक्तव्य नहीं होगा । अवक्तव्य जो भंग है वह भी वक्तव्य है। किससे? अवक्तव्य से । स्याद अवक्तव्या अवक्तव्य भी अस्ति है, वक्तव्य भी अस्ति है । यदि अवक्तव्य में नास्ति है। तो वक्तव्य भी नास्ति है। 'प्रवचनसार' जी का द्वितीय अधिकार प्रज्ञा को बहुत पैनी करने वाला है। 'प्रवचनसार' का ज्ञेय अधिकार विद्वानों के लिए परम उपादेयभूत है प्रज्ञा की प्रशस्ता के लिए। तत्त्व का नैयायिक दृष्टि से कैसे कथन किया जाये, तो 'प्रवचनसार' जी का ज्ञेय अधिकार है। इसलिए - नाऽवक्तव्यः स्वरूपाद्यैर्निर्वाच्यः परभावतः । तस्मान्नेकान्ततो वाच्यो नापि वाचामगोचरः ।।७ स्वरूप संबोधन ।। स्वरूप आदि की अपेक्षा से द्रव्य अवक्तव्य नहीं है। स्वरूप स्वचतुष्टय से आत्मा अवक्तव्य नहीं है । पररूप चतुष्टय से वक्तव्य नहीं है, अवक्तव्य है। इसलिए अनेकान्त से बोलना चाहिए। आत्मा स्याद्वक्तव्य, स्याद्अवक्तव्य है। जब-तक कदम न रखा जाये, तब-तक पर का हस्तावलम्बन लेते रहना। स्व का पाद स्थिर हो जाये, तो पर का पाद छोड़ देना । जब तक निश्चय में स्थिरता नहीं आती, तब तक व्यवहार का आलम्बन लेना । जब निश्चय में स्थिरता आ जाये, तो अपने में स्थिर हो जाना, तब व्यवहार छूट ही जायेगा। __ अब पूज्यपाद स्वामी की भाषा में कहें । सबसे पहले ज्ञानी बनने की बात नहीं करना । ज्ञानी नहीं, पहले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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