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________________ समय देशना - हिन्दी २१० शुभोपयोग का अपराध है, कि वह स्वर्ग गये, मोक्ष नहीं जा सके, क्योंकि शुद्ध रत्नत्रय की साधना नहीं कर सके । स्याद्बन्ध, स्याद्अबन्ध । कथंचित इस अपेक्षा से अकिंचित्कर है। योग के सहकारी हैं, कषाय के सहकारी है। चतुर्थ गुणस्थान में जहाँ सम्यक्त्व विराजा है, वहाँ अविरति विराजी है। उसी में योग, प्रमाद, कषाय विराजे हैं। तेरी शक्ति इतनी कमजोर रही, कि इनको भगा नहीं पा रहा है। भगा देता तो हम इनको सिद्ध कहते । सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि तेरी सत्ता में रहते हुए यह अपना काम कैसे कर रही है ? कहीं-नकहीं तेरा सहकारी-कारण है। अंतर इतना है, कि मिथ्यादृष्टि भिन्न सोच कर अनुभूति ले रहा है। परन्तु ध्रुव सत्य है, जैसे रुचिपूर्वक मिथ्यादृष्टि भोग भोगता है, ऐसे ही रुचिपूर्वक सम्यक्दृष्टि भोग भोग रहे हैं। ये भूल मत कर देना, कि हम रुचिपूर्वक नहीं भोग रहे हैं । तो फिर छोड़ दो । जानकर भोग कर रहे हो, इसलिये चारित्र मोहनीय का आस्रव अधिक होगा। संभलों, हे मुमुक्षु ! परद्रव्य परद्रव्य के बंध का उपादानकर्ता अकिंचित्कर ही है। किसमें? उपादान कारण में, निमित्त कारण में नहीं। नहीं तो बड़े ज्ञानी है ? जगत के भोग भोगते रहेंगे, और कहेंगे कि यह सब अकिंचित्कर है। अकिंचित्कर नहीं है। वह न होता तो तुम्हारी दृष्टि गई क्यों? इस कलश में क्या कह रहे हैं, व्यवहार-व्यवहार को माने सो अज्ञानी। निश्चय-निश्चय को माने, सो अज्ञानी । निश्चय व व्यवहार दोनों को ही माने, सो अज्ञानी। निश्चय व व्यवहार दोनों को न-माने, सो अज्ञानी और रत्नत्रय को धर्म माने, उसका नाम है ज्ञानी । बस, चारों तरफ अज्ञानियों की भीड़ है । कोई निश्चय की भाषा में आनंद लूट रहा है और ये व्यवहार वाले नाम नहीं लेते निश्चय का, तो निश्चय वाले व्यवहार का नाम नहीं लेते। हे ज्ञानियो ! ये दोनों भाषायें हैं । जो आत्मा की अभेददशा है, वह निश्चयधर्म है। जो आत्मा की भेददशा है, वह व्यवहारधर्म है। आयुकर्म के लिए केवलज्ञानी कुछ नहीं करते। आयुकर्म अपने अनुसार चलता है। आयुकर्म जब पूर्ण हो जाता है, तब सिद्ध बनते हैं । ठीक है। द्रव्यानुयोग का पेट बहुत बड़ा है। जीवाजीव सुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बंध मोक्षौ च । द्रव्यानुयोग दीपः श्रुत विद्या लोक मातनुते ॥४६|| र. क.श्रा.|| सात तत्त्वों का जो व्याख्यान है, वह द्रव्यानुयोग है, जितना दर्शन व न्याय शास्त्र है, वह सब द्रव्यानुयोग का विषय है। 'समयसार धर्म ग्रंथ है, अकिंचित्कर शब्द का प्रयोग किया है, टीकाकारों ने। अकिंचित्कर यानी हेत्वाभास । हेत्वाभासा असिद्ध-विरुद्धानैकान्तिकाकिंचितकराः ॥७/२१।। परीक्षामुख सूत्र ॥ हेत्वाभास के भेद - (१) असिद्ध (२) विरुद्ध (३) अनेकान्तिक (४) अकिंचित्कर । विद्या कभी अवगुण नहीं करती, यह तो आयुर्वेदिक औषधि है। आयुर्वेद का लक्षण होता है, कि रोगी ठीक नहीं हो, तो औषधि रोगी भी नहीं बनाती। पर आज की जो अंग्रेजी दवाई है, वह रोग ठीक करने से पहले ही आधा रोगी बना देती है। ऐसी दवाई नहीं खाना । जब हम लोग सोलह-सतरह साल के थे. तब आचार्य महाराज 'परीक्षामुख' जैसा कठिन ग्रन्थ पढ़ाते थे। समझ में नहीं आता था, लेकिन पर मन में आता था कि समझ में आये या न आये, पर याद करो। वे सूत्र आज समझ में आ रहे हैं। इसलिये समझ में न आये, पर सुनो। जब काललब्धि आयेगी, तब आपको समझ में आना शुरू हो जायेगा। व्यवहरणनयः स्यात्-यद्यपि प्राक्पदव्याम मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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