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समय देशना - हिन्दी टी.वी. केन्द्र से छोड़ी जाती हैं। तो क्या मनुष्य पर्याय में कषाय नहीं होती है, तिर्यञ्च पर्याय में कषाय नहीं होती है, नारक पर्याय में कषाय नहीं होती, देव पर्याय में कषाय नहीं होती ? कषाय तो तद् पर्यायी के अन्दर है, यह तो प्रगटन स्थान है। जैसा स्थान विशिष्ट होगा, वैसी कषाय विशिष्ट होगी । देव को लोभ विशिष्ट है, तिर्यञ्च की माया विशिष्ट है। विकारी- गुण पर्याय के प्रगटीकरण के लिए व्यञ्जन पर्याय है । मनुष्यादि, गुणपर्याय जैसी होगी, व्यंजनपर्याय का प्रदर्शन वैसा होगा ।
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मुमुक्षु ! व्याप्य - व्याप्क संबंध है। फिर कहो कि यह पर्याय का सहभावी, अविनाभावी है। नरक पर्यायें होंगी, उसमें क्रोध पर्याय नियम से होगी। यह नरक-पर्याय का सहभावी परिणमन है। इसी प्रकार से जो यह जीव संसार-पर्याय में आयेगा, तो उसके कषायभाव आयेंगे । अपने निज पुरुषार्थ से वह उनको शमन कर सकता है। वृक्ष में आम्रफल का प्रगटीकरण होगा, तो नियम से उसमें रस, गंध, वर्ण होगा। होगा, कि नहीं ? यह कौन-सा संबंध है ? सहभावी है। यह बहुत जटिल प्रश्न है। इन्होंने सहभावी कहा। सहभाव अवस्था को बदल सकते हैं, कि नहीं ? ध्रुव सत्य यह है, कि यदि सहभावी में परिणमन नहीं मानोगे तो केवलज्ञान कभी नहीं होगा। इसलिए सहभावी अवस्था भी बदलती है । किसमें ? द्रव्य में, गुण में, पर्याय में किसमें द्रव्य, गुण, पर्याय में । ध्यान दो यह तुम्हारी विषमता की अवस्था है। पुद्गल व जीव की क्या विडम्बना कहूँ । चार द्रव्य बड़े ही सुन्दर हैं। वे विजातीय को स्वीकार कभी नहीं करते, लेकिन दो द्रव्य ऐसे हैं, जो विजातीय को स्वीकार करते हैं। इसलिए मात्र दो तत्त्व में झगड़े हैं, चार द्रव्यों में सात तत्त्वों का कोई विकल्प नहीं । क्योंकि, इस जीव के अन्दर दो पर्यायों का एकसाथ परिणमन होता है । असामान्य जाति, सामान्य जाति । जब हम स्वरूप सादृश्य को निहारते हैं, तो स्वरूप सादृश्य में क्या निहारते हैं । मैं चैतन्य द्रव्य हूँ, ज्ञान-दर्शन मेरा गुण है, जीवद्रव्य में हूँ, मेरे में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य चल रहा है। तन का उत्पाद तन में चल रहा है, मेरे चैतन्य का नहीं। विभाव-व्यञ्जन - पर्याय को गौण करके, इस शरीर के परिणमन किंचित भी विभाव-स्वभाव नहीं है। भटकना नहीं, जिस नय से कह रहा हूँ उस नय से सुनो। शरीर के परिणमन से तेरा स्वभाव परिणमन नहीं है, चैतन्य के परिणमन से तेरा स्वभाव परिणमन है। ये चाहे बूढ़ा हो, लगड़ा-लूला हो । ये कैसा भी हो, कुब्जक भी हो, हुण्डक भी हो, तब भी संसार में नहीं रूला सकता है । चाहे समचतुस संस्थान वाला हो, पर भाव का कुबड़ा है, तो समचतुरस संस्थान भी मोक्ष नहीं दिला पायेगा । किसी काले को देखकर चेहरा नहीं बिगाड़ना । यह कालापन चर्म का है, धर्म का नहीं है । गुण-पर्याय सबसे ज्यादा क्यों बिगड़ रही हैं ? हे ज्ञानी ! तू किसी माँ का लाल नहीं है क्या? किसी भगनि का भैया नहीं है क्या ? तेरे पुत्र की माँ किसी की भगनि नहीं है क्या? जिसकी वह बहिन है, उससे पूछना कि तू इसमें क्या देखता है । चरण छूता है और कहता है, कि मेरी बहिन हैं। भगनि भाव से क्या परिणामों की विशुद्धि से खड़ा है ? तेरे पत्नि भाव से क्या परिणामों की अशुद्धि लिए खड़ा है ? द्रव्य एक है। काश ! तू पर की पर्याय को नहीं देखता, तू उसमें जीवद्रव्य निहारता तो हे ज्ञानी ! उसमें तुझे भगवान् नजर आते।
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व्यंजनपर्याय में गुणपर्याय को ले गया, इस कारण जगत में विषम / विजातीय पर्याय में भ्रमण करना पड़ रहा है। गुण- व्यंजन- पर्याय को द्रव्य-व्यंजन-पर्याय में न ले जाता, तो, हे ज्ञानी ! आज तू अशरीरी भगवान्-आत्मा होता । क्योंकि विभाव - व्यंजन-पर्याय है । देव, नारक, मनुष्यादि । विभाव- द्रव्य-व्यंजन पर्याय का आसरा क्यों लिया? ये सब क्या है ? विभावदशा है। यह क्यों है ? द्वैत के कारण । अचेतन है मिश्रधारा, चैतन्य की । हे भगवान् ! तलवार की धार पर चलना कठिन नहीं है, ध्यान दो, अपनी द्रव्य
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