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समय देशना - हिन्दी
२०४ व्यंजन-पर्याय को पर की द्रव्य-व्यंजन-पर्याय से रोकना कठिन है । द्रव्यानुयोग से चरणानुयोग का कथन करूँ । शील का पालन कठिन नहीं है। परन्तु ज्ञानगुण को, चर्म के धर्म में ले जाने से रोकना कठिन है। मनुष्य, घोड़ा कभी बूढ़े नहीं होते, इनके तन बूढ़े होते हैं इनकी वासनायें बूढ़ी नहीं होती हैं। इनको बाजीकरण (गरिष्ठ भोजन) मिलता है। आयुर्वेद की भाषा में बोल रहा हूँ।
हे मुमुक्षु ! साधना के लिए ज्ञान ही चाहिए। साधना के लिए ज्ञान ही को वश में करना पड़ता है। जिसका ज्ञान वश में है, उसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं। जिसका ज्ञान वश में नहीं है, उसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं है, उसका कुछ भी वश में नहीं है। लोगों ने बिजली के बटन चटकाना (बंद करना) सीख लिया, मुख्य बटन (मेन स्विच) पर ध्यान नहीं है। मेन स्विच बन्द कर दो, बिजली के बटन चटकाने की जरूरत नहीं है । ज्ञानी ! गइराई में पहुँच नहीं रहा है। जगत् के जीव कोई कान को वश में करना चाहते हैं, कोई नाक को वश में करने में लगे है, कोई आँख को । अरे मुमुक्षु ! ज्ञान को ज्ञान से वश में कर लीजिए । पाँच बल्ब जो जल रहे हैं, उन पाँचों बल्बों में करेंट एक है। हे ज्ञानी । पाँचों ही इन्द्रियों में ज्ञानधाराएँ जाती हैं। ज्ञानधारा को वश में नहीं करना । एक-सौ-बीस वर्ष के क्षुल्लक जी भिण्ड में विराजे हैं, जो अपनी क्रियाएँ स्वयं करते हैं। तन काम तभी देता है, जब ज्ञान स्थिर हो जाता है। जिसका ज्ञान चला जाता है, उसका तन जल्दी चला जाता है। आज जैनदर्शन में दुनियाँ के शब्द आ गये हैं, जैनदर्शन तो बहुत ऊँचा है। आप कहते है कि भगवन् ! जल्दी ठीक हो जायें । यह मिथ्यात्व है। सास परेशान कर रही है। मिथ्यादृष्टि । यह सम्यकदृष्टि की भाषा है क्या? सम्यग्दृष्टि 'कारण-कार्य विधान' जानता है। बहू क्या परेशान करेगी, सासू क्या परेशान करेगी? । मेरे पूर्व का कर्म है। सासू द्वारा दिया गया कष्ट कार्य है, कारण तो पूर्व का कर्म है।
मेरे अन्दर हृदय में एक बात गूंजती है 'कारण-कार्य विधानं' ये जगत के बच्चों से लेकर बड़ों तक के हृदय में यह बैठ जाये, तो दुनियाँ के सारे के सारे विसंवाद समाप्त हो जायें।
_ अब बताओ ये विकार पर्याय का था, कि परिणामों का था ? विकार पर्याय का नहीं था, पर्यायी का था। पर्यायी विकारों को शांत कर ले, तो पर्याय अभी बदलती है। यह असामान्यजाति पर्याय नष्ट होती है। सुनने में जितनी ताकत लगा रहे हैं आप, उतनी ध्यान में लगाने लग जाओ, तो मोह आपका विगलित होना प्रारंभ हो जायेगा । क्योंकि सुनने का मस्तिष्क भिन्न रहता है, सुनाने का मस्तिष्क भिन्न होता है, और ध्यान का मस्तिष्क भिन्न होता है, तथा श्रद्धा का मस्तिष्क भिन्न होता है। ज्ञान से मिलान करो। लोग कहते हैं कि जगत में सुख है, उससे थोड़ा और ऊपर ले जाओ। ज्ञान में पहले सुख मिलता, कि श्रद्धा में सुख मिलता? ज्ञान बहुत कठिन विषय है। जो श्रद्धा में सुख है, वह कहीं नहीं है। आप टीचर हो, किसी के चेहरे पर बहती नाक को देखकर तुम मुँह सिकोड़ लेते हो। पढ़े-लिखे हो, मल में कोई सुख होता है क्या? पर धन्य हो श्रद्धा के सुख को । स्वयं के सुत की नाक से अमृत नहीं झरता, वहाँ भी मल ही होता है, वह मल भी विसर्जित करता है, लेकिन अपने निज के सुत के मल को साड़ी से पोछ लेती है, आप अपने रूमाल से पोछ कर जेब में रख लेते हो, जैसे अमृत रख लिया हो। ये क्या था? बेटा भाव का राग । वह मोह न हो, तो कोई भी संतान का पालन नहीं करेगा। तो जैसे बेटे के राग ने मल पर वैराग्य उत्पन्न नहीं होने दिया, ऐसे ही श्रद्धा का राग मिथ्यात्व में राग नहीं होने देता। ये श्रद्धा का सुख है। बेटे का मल उठाने में तुझे आनन्द होता है, यह मोह का आनन्द है। अब सम्यक्त्व के आनन्द की बात करो। निर्विचिकित्सा अंग कहता है, कि आप अपने सधर्मी के मल को उठाने में द्वेष नहीं करते हो, यह है श्रद्धा । श्रद्धा मल में भी ग्लानि नहीं होने देती और अश्रद्धा
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