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________________ समय देशना - हिन्दी २०२ हो जाये, तो वे कार्य परमाणु हैं । पुनः देखो, सम्यक्दर्शन कारण-सम्यक्त्व है, कि कार्य सम्यक्त्व है। इसलिए आगम की किसी भी विवक्षा को एकांगी कभी कहा नहीं जा सकता है। सम्यक्त्व सम्यज्ञान के लिए कारण है, आपने पहले 'पुरुषार्थसिद्धि उपाय' में पढ़ा है। कारण कार्य विधानं'' सम्यक्त्व ज्ञान के लिए कारण है। सम्यक्त्व स्वयं के लिए कार्य है और वही सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र के लिए भी कारण है। बिना सम्यक् के न तो ज्ञान में सम्यक्पना आता है, ना ही चारित्र में सम्यकपना आता है। इसलिये दोनों के लिए सम्यक् कारण है । पर उस सम्यक् का कारण क्या है ? प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य, कर्म की प्रकृतियों का क्षय, क्षयोपशम ये सम्यक्त्व के कारण हैं और सम्यक्त्व कार्य है। यही कारण है कि पूर्वक्षणवर्ती परिणाम कारण है, उत्तरक्षणवर्ती परिणाम कार्य है। ये 'कारण कार्य विधान' सर्वत्र लगाना । एक समयवर्ती परिणाम कारण कार्य है। कारण कार्य विधान हो जाये और समयभेद न हो, यह संभव है क्या ? हो सकता है, क्यों हो सकता है ? दीपक जला, प्रकाश हुआ, अंधकार गया । यह कब हुआ, कितने समय लगे? एक समय में हुआ। कालभेद हो नहीं, कार्यभेद हो जाये, यह संभव है कि नहीं? कार्यभेद होने पर भी कालभेद नहीं होता, और कालभेद होने पर भी कार्यभेद नहीं होता। और कार्य भेद में कालभेद हो जायेगा तो उत्पादव्यय-ध्रौव्यत्व की सिद्धि भंग हो जायेगी। उत्पाद भिन्न कार्य है, व्यय भिन्न कार्य है, ध्रौव्य भिन्न कार्य है, पर काल तीनों का एक है। उँगली द्रव्य है, सीधी पर्याय है। उंगली टेड़ी, तो पर्याय टेड़ी। द्रव्य के टेड़े किये बिना पर्याय टेड़ी कैसे हो गई ? यही हृदय का टेड़ापन है । ये पर्याय में टेड़ापन मानते हैं, परन्तु द्रव्य में टेड़ापन नहीं मानते । तत्त्व की परम भूल है। पर्याय बदलती है कि, द्रव्य बदलता है ? हे ज्ञानी ! द्रव्य के परिणमन का नाम ही तो पर्याय है। परिणमन की संज्ञा पर्याय है, परिणमन तो द्रव्य में है। द्रव्य में परिणमन नहीं होगा, तो पर्याय किसकी होगी? इसे अच्छे से समझ लो। परिणमन की संज्ञा पर्याय है, लेकिन परिणमन पर्याय में नहीं , द्रव्य में हो रहा है। यदि पर्याय का परिणमन ही परिणमन है, तो पर्याय अलग से परिणमन करेगी, द्रव्य अलग परिणमन करेगा, गुण अलग परिणमन करेंगे, मालूम चला कि तीनों भिन्न-भिन्न हो जायेंगे, जबकि सिद्धांत-सूत्र कहता है : पज्जय विजुदं दव्वं, दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि । दोण्हं अणण्णभूदं, भावं समणा परूविति ॥१२॥ पंचास्तिकाय ॥ इसलिए ध्यान दो। आत्मा ही क्रोधी, आत्मा ही मानी, आत्मा ही मायावी, आत्मा ही लोभी है। यह भूलकर भी मत कह देना कि ये आत्मा की परिणति नहीं है। यदि पर्याय में हो रही हैं तो जब इस पर्याय (शरीर) में आग लगेगी, तो चारों कषायें भी जल जायेंगी, तू अकषायी हो गया, तू तो भगवान् बन जायेगा। क्यों? यह बताओ कि ये क्रोधादि भाव आत्मा के भाव हैं , कि मनुष्य पर्याय के भाव हैं ? यदि तू ऐसा कहता है कि मनुष्य पर्याय के भाव है, तो जब मनुष्य पर्याय जल जायेगी, तो भाव भी जल जायेंगें। नहीं तो इसी पर कथा सुनाता हूँ। श्रेणिक चरित्र में पढ़ा होगा। चेलना ने मठ में आग लगा दी थी। क्योंकि उससे कहा गया था, कि जब हमारे गुरु ध्यानस्थ होते हैं, तब परमात्मा में लीन हो जाते हैं। तब चेलना ने विचार किया, कि जब परमात्मा में लीन हो जाते हैं, तो पुद्गल को जला देना चाहिए । जब पुद्गल जल जायेगा, तो उनको वापस रहने को स्थान नहीं मिलेगा, तो परमात्मा में लीन रहेंगे । हे मुमुक्षु ! ध्यान रखना, यह जीव-तत्त्व का विपर्यास है, तत्त्वदृष्टि का विपर्यास है। कषायभाव पर्याय के भाव नहीं, कषायभाव पर्यायी के भाव हैं । पर्याय के निमित्त से प्रगट होते हैं । टी.वी. में कोई चित्र नहीं होते, टेलीविजन से चित्र देखे जाते हैं । वह तरंगें तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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