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समय देशना - हिन्दी जो परभाव से शून्य शुद्ध आत्मद्रव्य है, वही मेरा निजभाव है। शुद्ध नय के विषय को ही निज का ज्ञेय बनाइये, ध्येय बनाइये । और शुद्ध निज तत्त्व का ही ध्यान कीजिए। जैसे - वस्त्र तेरा है, फिर भी तू वस्त्र नहीं है। तन तेरा है, फिर भी तन तेरा नहीं । तू चैतन्य है । तो जैसे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध नहीं है, वैसे चेतन में शरीर है। जैसे चेतन में शरीर है, वैसे चेतन में रागादिक भाव है। जैसे एक उतारो अर्थात् वस्त्र उतारो। एक उतारो, अर्थात् चारित्र निज में उतारो। वैसे ही वे भी अर्थात् कषाय भाव उतारो, तब मिलेगा शुद्धतत्त्व | बन गया है। जब दही था तो कह रहा था, कि मथो / विलोओ । लोनी बन गई, तो मरी हटाओ । अब कुछ नहीं हटाओ, चखो-खो । जब चख लिखा, तो अब लखो-लखो, लखो - लखो बन्द कर दिया, तो अब ब्रह्मानंद स्वरूपोहम्, परमानंद स्वरूपोहम् । जिसने द्रव्य को पा लिया, वह पर्याय के विकल्प में नहीं पड़ता है। ध्रुव सत्य यह है । जब मैं जानूँगा, तब नहीं कहूँगा । अतीन्द्रिय है, कि इन्द्रिय है, मैं इन विकल्पों से
शून्य हूँ । इसलिए ध्रुव सत्य यह है, कि जब-तक पाया नहीं, तब-तक व्याख्यान करना कि ज्ञेय भी शुद्ध हो, ज्ञाता भी शुद्ध हो, और हेतु भी शुद्ध हो, और जब पा लिया है, तो शुद्ध शब्द को भी छोड़ दो। “जो सो दू सो चेव', जो है सो है ।
॥ भग्वान महावीर स्वामी की जय ॥
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'समयसार' जी ग्रन्थ में तत्त्व - प्ररूपणा करते हुए समझा रहे हैं । जीवादि तत्त्व परमार्थ-भूत हैं इसलिए भूतार्थ हैं । स्वभावभूत नहीं हैं, इसलिए अभूतार्थ हैं । छः द्रव्य, सात तत्त्व में जीवतत्त्व को छोड़कर शेष सभी पदार्थ भूतार्थ नहीं हैं। भूतार्थ होने पर भी अभूतार्थ हैं और अभूतार्थ होने पर भी व्यवहार से भूतार्थ हैं। जैसे कि सात तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यक्दर्शन है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, लेकिन जब तू शुद्धात्मा में लवलीन होगा, वीतराग निश्चयसम्यक् तभी प्रगट होगा, जब एकमात्र शुद्ध चिद्रूप ध्रौव्य निजआत्मा पर ही तेरा श्रद्धान होगा। यह परमार्थ है ।
तेरहवीं गाथा की टीका गहनतम् अध्यात्म से भरी हुई है, उससे पहले आप बारहवीं गाथा की आचार्य जयसेन स्वामी की टीका देखें । पूर्व गाथा में कहा है कि जो भूतार्थनय का आश्रय लेता है, वह जीव सम्यक्दृष्टि होता है। मात्र भूतार्थ निश्चयनय ही नहीं, निर्विकल्प समाधि में रत है, वही प्रयोजनवान है । जिनमुद्रा प्रयोजनभूत है, जिनलिंग प्रयोजनभूत है, वीतराग मुद्रा प्रयोजनभूत है, पिच्छि- कमण्डलु प्रयोजनभूत है । लेकिन कब ? जब निर्विकल्प ध्यान में लीन दशा है तब । हे ज्ञानी ! ये सभी अप्रयोजनभूत हैं, निज शुद्धात्म स्वरूप ही प्रयोजनभूत है। जब आप निज स्वभाव में लग जायें, तो षटआवश्यक प्रयोजनभूत हैं । परन्तु वह निर्विकल्प ध्यान की अवस्था जिनलिंग में ही बनेगी। वह प्रयोजन का प्रयोजन होने के कारण वह भी प्रयोजनभूत है । प्रयोजन का प्रयोजन, कारण का कारण । सम्यक्दर्शन कारण है, सम्यक्ज्ञान कार्य है । 'पंचास्तिकाय' में कारण- परमाणु, कार्य-परमाणु का वर्णन है । वही परमाणु कारण- परमाणु भी है, वही कार्य परमाणु भी होता है। जब परमाणु स्कन्धपने को प्राप्त होवे, तब वह कारण परमाणु है। जब स्कन्ध से परमाणु रूप बने, तब कार्य परमाणु है । द्रव्य परमाणु, भाव परमाणु । परमाणु कार्य भी है, कारण भी है । कारण कब है ? जब परिणामों की विशुद्धि क्षपकश्रेणी की ओर ले जाये, तो ये तेरे कारण - परमाणु, भाव परमाणु । जब ये निम्न गुणस्थान से ऊपर की ओर जायें, तो कारण-परमाणु है, और जब निजगुण में स्थिर
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