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समय देशना - हिन्दी
२०० महावीर के निर्वाण से अंतिम श्रुत के वली भद्रबाहु तक का काल १६२ वर्ष अंत समय में श्वेताम्बर पन्थ का जन्म हुआ। दिगम्बर मूलसंघ कुल ६८ वर्ष तक अविछिन्न रहा।
वीर नि.स. ५९३ के पूर्व आ. अर्हदवाली पंचवर्षीय प्रतिक्रमण के समय संघ भेद यापनीय संघ विक्रम की मृत्यु के ७०५ वर्ष दूसरे मतानुसार २०५ वर्ष बीतने पर नन्दि संघ हुआ, वह आ. माघन्दि के समय बना। संघ में भेद आ. अर्हद्वली के समय हुआ। इस प्रकार देखेंगे कि अनेक उपसंघो ने जन्म लिया, जिनमें एक निस्पिच्छिका संघ बन गया, बोले यह परिग्रह भी छोड़ो। इनमे श्वेताम्बर विकार आ चुके थे। दिगम्बर आम्नाय में अर्द्ध फलक एक कपड़ा रखते थे, दिगम्बरत्व को ढंक कर चलते थे। पीछे का भाग दिगम्बर, आगे के भाग पर कपड़ा ढंकते थे। उसके बाद यापनीय संघ आदि हुए। पर धीरे-धीरे वे सब विलीन हो गये, सत्य एक बचा । एक बात ध्यान रखना, दिगम्बरत्व का कभी अभाव नहीं होगा। कितने नवीन नाम आ जायें, पर सब दिगम्बरत्व में समाविष्ट हो जायेंगे। घबड़ाना नहीं। हर सदी में एक विशिष्ट आचार्य होंगे, नहीं तो धर्म चलेगा कैसे साढ़े अट्ठारह हजार वर्ष तक ? कलश पढ़ लो -
एकत्वेनियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्वदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं ।।
तन्मुक्त्वा नवतत्त्व संतति मिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ||७|| आ.अ.क.|| यह कलश कह रहा है एकत्व नियत है। शुद्धनय। परभावों से भिन्न है यह मेरी आत्मा । कैसी है वह आत्मा ? पूर्ण ज्ञान से युक्त है, वही जो सम्यग्दर्शन है। जो सम्यग्दर्शन है, वही आत्मा है। कैसी है? अन्य द्रव्यों से अत्यन्त भिन्न जो स्वरूप है, वही आत्मा है। द्रव्यार्थिकनय से क्या लेना ? राग, द्वेष, मोह आदि भाव भी कर्माश्रित होने के कारण मेरे निज स्वभाव नहीं हैं, इसलिए ये मेरे से भिन्न हैं । एकमात्र शुद्ध सम्यक्त्व ही मेरी आत्मा का धर्म है। रागद्वेष भी परद्रव्य है। यह पुद्गल की पर्याय है, शुद्ध निश्चयनय से कर्म के आश्रय से हो रही है। इसलिए, जो हट जाये, मिट जाये मेरे से, वह मेरा कैसा है ? वह तो पर ही है। जो पर है, वह परद्रव्य ही है । मेरा सम्यक्त्व गुण मेरे से कभी हटेगा नहीं, मिटेगा नहीं। मैं सिद्ध बनूँगा तो सम्यक्त्व गुण होगा, लेकिन रागद्वेष नहीं होगा। इसलिए रागद्वेष तो पुद्गल आश्रित भाव था, इसलिए वह भले ही जीव को था, पर पुद्गल आश्रित होने के कारण उसे पुद्गल कहा । जो रागद्वेष विहीन आत्मा के परिणाम हैं, वही सामायिक है, वही सामायिक-चारित्र है । सम्यक्दर्शन ही नियम से आत्मा है । गुण-गुणी अभेद कथन है। उससे अन्य गुणों को छोड़कर, जो नौ पदार्थों की परम्परा है, संतति है, उन नौ तत्त्वों से आत्मा को भिन्न करके आत्मा को जानो, और नौ तत्त्वों से भी भिन्न निज शुद्धात्मा मानो। अब नौ तत्त्वों से आत्मा को भिन्न कैसे करें, उसमें तो आत्मा भी है ? आत्म तत्त्व, जीवतत्त्व में अनंत जीव हैं। उन अनंत जीवतत्त्व में से अपने को भिन्न कर देखो। जो नाना जीवतत्त्व हैं उनसे अपने को भिन्न करके देखो। क्योंकि परजीवतत्त्व से नहीं है। यहाँ भगवान, माता-पिता, गुरु सभी आ गये। इन सब के मध्य में इन सबको जानो, पहचानो, इन सबका श्रद्धान करो, लेकिन इन सब से भिन्न निज आत्मतत्त्व को स्वीकारो । गृहस्थ है, घर में तो रहना ही है। घर में रहते हुए घर को अपना मत मानो । अपना कहते हुए भी, उसका रक्षण करते हुए भी, उसकी रक्षा में अपनी रक्षा मत खो देना । ज्ञेय है, हेय है, उपादेय तो है एक निज शुद्धात्मा । निज अशुद्धात्मा भी उपादेय नहीं है। वह भी परभाव है। क्यों? निज अशुद्धात्मा परभाव का आलम्बन लिये है, इस अपेक्षा से परभाव है।
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