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________________ समय देशना - हिन्दी ૧૮૮ उनने कहा हो, चाहे 'जिन' ने कहा हो, हमारे मन को जो अच्छा लगेगा, वह करूँगा'-यह महावीर के शिष्यों की महिमा है। इसलिए छेदोपस्थापना चारित्र है। प्रतिक्रमण में कितनी बार कहते हैं , पर उसमें मन लगा तो छेदोपस्थापना, नहीं तो किंचित भी मन में विकल्प टकरा गया, यहाँ-वहाँ की चर्चा मस्तिष्क में आ गई है, तो हे भगवन्! तस्य मिच्छामी दुक्कड कहकर तुरंत कायोत्सर्ग करना चाहिए। गोमटेश में आचार्य पद्मनंदि महाराज की एक बात अच्छी लगी। मैं आचार्य श्री विरागसागर के साथ चल रहा था । इतने में आचार्य पद्मनंदि महाराज ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा - मन चंचल है, रूकता तो है नहीं, जाता तो है ही, पर जाने के बाद भी तो कुछ किया जा सकता है ? पंचमकाल है, दोष हो जाये वह दोष है, दोष को नहीं मानना महादोष है। दोष में संतुष्ट कभी नहीं होना । दोष को दोष मानते रहना । कुछ नहीं कर पाओ, तो णमोकार मंत्र की माला फेर लेना। दुनियाँ कुछ भी कहे, पर तुम ध्यान रखना । प्रायश्चित्त एक तप है, जिससे कर्म निर्जरा होगी। मैंने कहा कितनी सुन्दर बात बताई। जब तुम्हारे मन में प्रायश्चित्त के भाव आये थे, तभी प्रायश्चित्त हो गया । चित्त-शुद्धि हो गई, फिर प्रायश्चित्त क्यों लेना ? अरे ! यही तो वक्रता है महावीर स्वामी के शिष्यों की। नहीं हुआ प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त लेने के भाव आये। चित्त में विशुद्धि आ रही थी, लेने पहुँच गये, स्वीकार कर लिया, प्रायश्चित्त हो गया। चित्त की शुद्धि का नाम प्रायश्चित्त है। गुरु चाहे छोटी गलती का बड़ा प्रायश्चित्त दे दे चाहे बड़ी गलती का छोटा प्रायश्चित्त दे दे, शिष्य के चित्त की शुद्धि को देखकर । कितना गहरा है । छेदोपस्थापना राजमार्ग नहीं है, अपवाद मार्ग है। कोई आपसे बोल सकता है, कि पाँच प्रकार का लिखा, फिर भी अपवाद क्यों बोल रहे हो? यह प्रश्न हो सकता है । जिसने अल्प शास्त्र पढ़े, वह क्या बोलेगा, यह सूत्र झूठा है क्या ? सूत्र झूठा नहीं है, सूत्र सत्य है, पर मैं जो कह रहा हूँ, वह भी परम सत्य है । चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों में से बाईस तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना का उपदेश नहीं दिया। ये प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने सरलता व कुटिलता के पीछे पुनः स्थापित करने के लिए कहा है। राजमार्ग तो सामायिक है, सामायिक भंग हो जाये, तो फिर छेदोपस्थापना । छेदोपस्थापना के दो गुणस्थान हैं। छेदोपस्थापना चारित्र स्वयं में होता है, और छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त गुरु देते हैं। ये लौगों (लवंग) वाली दीक्षा से मोक्ष नहीं मिलता। देखो, भटक नहीं जाना । पंचमकाल के लोग जानते कम हैं, कहते ज्यादा हैं। आप समझने लगे न, इसलिए बोल देता हूँ। लौगों (लवंग) वाली दीक्षा से परिणामों की दीक्षा लेना पड़ती है | मोक्ष तो परिणामों की दीक्षा से मिलेगा। जब में दर्शनशास्त्र आदि की पुस्तक पढ़ते थक जाता हूँ न, तब मैं जैन इतिहास । वह रहती है सरला थकान भी ज्ञान से मिटाइये। इतिहास है आपका। अभी तो ये कहना चाहिए कि मुनिचर्या बड़ी अच्छी चल रही है । मध्यकाल की मुनिचर्या देखते न, तो आप नमोस्तु न बोलते। ये भाग्य है अपना । लोग तो बातें करना जानते हैं, समझते नहीं हैं। वर्तमान की मुनिचर्या श्रेष्ठ है मध्यकाल की अपेक्षा। किसी का नाम नही लेना। एक बात ध्यान रखना, कहना छोड़ना नहीं, पर नाम किसी का लेना नहीं। आचार्य समन्तभद्रस्वामी की शैली अपनाना है अपन को। 'आत्ममीमांसा' जब हमने पढ़ी, तब एक बात सीखी, कि आचार्य समन्तभद्र ने ३६३ मतों का खण्डन किया, पर नाम किसी का नहीं लिया। बोले कि मैं पापी का नाम नहीं लेना चाहता। पर श्लोक पढ़ते ही पता चल जाता है, कि अमुक मत का खण्डन हो गया। ध्यान दो, मध्यकाल में कच्छपसंघ था। ये बगीचे लगवाते थे, मठ में रहते थे। काष्ठा संघ, काष्ठ का मंदिर, काष्ठ की प्रतिमा कारंजा में । गौ पुच्छिका संघ- गाय के पूँछ की पिच्छी रखते थे। बकुल संघ बगुले के पंख की पिच्छी रखते थे। तो वजनंदी ऐसा हुआ, उसने पिच्छि रखना ही छुड़वा दी । भगवान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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