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समय देशना - हिन्दी
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हो जाता । अग्नि को कोई शीतल कहने लग जाये, तो अग्नि शीतल नहीं हो जाती। ऐसे ही अरहंत को, सर्वज्ञ को कोई जीव असर्वज्ञ कहने लग जाये, तो वे असर्वज्ञ नहीं हो जाते। निर्ग्रन्थ का अभाव करने लग जावें, त निर्ग्रन्थ का अभाव नहीं होता, और ग्रंथवाला निर्ग्रन्थ नहीं हो जाता। समझ में आ रहा है? संज्ञा से वस्तु का स्वभाव नहीं बदलता, वस्तु को समझने के लिए संज्ञा दी जाती है। एक-एक शब्द पर ध्यान दो । वस्तु को समझने के लिए, व्यवहार चलाने के लिए संज्ञा दी जाती है, परन्तु संज्ञा से वस्तु नहीं बदलती । जब तुमने जन्म लिया था, तब नाम रखा था, कि जन्म के साथ नाम आया था ? माता-पिता ने दिया था । अहो ! राग की दशा तो देखो, जनक- जननी के द्वारा दी गई संज्ञा इतनी घुल-मिल गई है कि यदि कोई तुम्हारे नाम को कुछ कह दे, तो आँखें लाल-पीली हो जाती हैं और किसी ने तुम्हारे नाम की प्रशंसा कर दी, तो प्रसन्न हो जाता है ।
ओहो ! पुद्गल की पर्याय से पुद्गल की पर्याय का संज्ञान लेने पर संज्ञानी भ्रमित हो रहा है। आपको समझ में आ रहा है, जो मैं कह रहा हूँ ? जब तक संज्ञा का संज्ञान समाप्त नहीं हुआ अन्दर से, तब तक संज्ञानी नहीं बन पायेगा निश्चय से । जिस दिन पर्याय की संज्ञा का निज में विलोप हो जाता है, उस दिन परमध्यान लगना प्रारंभ हो जाता है। उदाहरण के लिए, जैसे आप कहीं बाहर गये और वहाँ पर आपके नगर का कोई मिल जाये, तो मन में एक धारा बहने लगी, अरे ! मेरे नगर का है। शीघ्र ही धारा बहती है । पृथ्वी के प्रदेशों में परमाणु-परमाणु स्वतंत्र हैं, पर राग परमाणु कितना विशाल है। पृथ्वी का परमाणु आँखों के सामने नहीं है । राग का परमाणु आँखों से दिख भी नहीं रहा है, फिर भी राग परमाणु झलक गया, जिसने वीतराग भाव को हटा दिया ।
आप परम ध्रुव सत्य समझना, यह जो व्याख्या चल रही है, वह मुनिराज की व्याख्या नहीं चल रही है, यह मुनिभावों की व्याख्या चल रही है। मुनिवेश की व्याख्या नहीं है, मुनिभाव की व्याख्या है । पुनः एक प्रश्न । सोने की घड़ी में सोने के पैसे ज्यादा हैं, कि घड़ी के काँटे की कीमत ? समय कौन बताता है ? घड़ी। ये शरीर एक कवच है, इसमें भगवती आत्मा मशीन है, रत्नत्रय तीन काँटे हैं। शुद्धात्म तत्त्व एक मशीन है, विश्वास रखना, इनके बिना वह होती नहीं है । पर इनसे नहीं चलती, चलती तो वह मशीन से ही है। इसी प्रकार से जिनमुद्रा तो कवच है, जिनमुद्रा में जो शुभाशुभ परिणति है, वह आत्मा की दशा है। शुद्ध निर्मल तो एक ज्ञायकभाव है, वही मात्र मुनि का स्वभाव है। बस, यह व्याख्या करने का उद्देश्य समझना, जब आप मुनिराज बनेंगे, तो वेश के मुनि कभी भी बन सकते हो, पर ध्यान में रखना भावमुनि बन पायेंगे, कि नहीं। जंगल में रहना भी सरल है। हम लोगों ने रहकर देख लिया ।
श्रेयांसगिरि पर्वत शुद्ध जंगल है। शायद कोई और हो, मुझे तो ऐसा लगता है, उत्तर से दक्षिण में मैंने देखा, कि इतना सुन्दर जंगल कहीं नहीं मिला। सब जगह बस्तियाँ बन गईं, व्ही.आई.पी. कमरे हो गये, पर श्रेयांसगिरि ऐसा क्षेत्र है जहाँ अभी भी प्राकृतिकता है। जब वहाँ आचार्य महाराज के साथ चातुर्मास किया था, वे दिन कैसे थे? वहाँ पाटा नहीं थे, पर्वत की शुद्ध चट्टानें ही साधुओं के बैठने के आसन थे । और यह चौकी कहाँ दिखती थी ? वहाँ बस हम लोग क्या करते थे कि पत्थर पर पत्थर रखा और उस पर ग्रन्थ विराजमान कर लेते थे । सन् १९९१ में अलमारी कौन-सी थी ? जो पर्वत की गुफाएँ थीं, उनमें ही मार्जन करके ग्रन्थ रख देते थे, और पत्थर से ढाँक देते थे। एक दिन हम दोनों सामायिक कर रहे थे, ऐसा मूसलाधार पानी गिरा वहाँ
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