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समय देशना - हिन्दी
१६२ यह दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों के यहाँ है । उत्कृष्ट मंगल कोई है तो वह धर्म है । जो कैसा है? अहिंसा संयम, तपरूप है। उस धर्म को देव भी नमस्कार करते हैं । ऐसे धर्म को सदा मानो। यह सभी जगह मिलेगी। अगर आप दिगम्बर आचार्य की मानते हो तो श्वेताम्बर के यहाँ नहीं होती। यह परम्परा से चली आ रही है। द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ दोनों आम्नाय में है। मूल तो छब्बीस गाथाएँ है, बाद में शेष लिखी गई है।
यदि जिनदेव के शासन में आप दीक्षित हुए हैं, तो मत करना ऐसा । न व्यवहार को छोड़ना, न निश्चय को छोड़ना। व्यवहाराभासी कहते है कि निश्चय को छोड़ो, निश्चयाभासी कहते हैं कि व्यवहार को छोड़ो। दोनों मिथ्यादृष्टि हैं । सम्यग्दृष्टि कहेगा कि साध्य-साधन भाव है। आप निश्चय वाले, कि व्यवहार वाले ? दोनों वाले हो । तो क्या उभयाभासी हो ? नहीं। न मैं एकांत से व्यवहार को मानता हूँ, न एकान्त से निश्चय को मानता हैं । हम तो साध्य-साधन भाव मानते हैं। न निश्चय मोक्षमार्ग बनेगा न व्यवहार मोक्षमार्ग बनेगा। निश्चय व व्यवहार रत्नत्रय मोक्षमार्ग है, नय मोक्षमार्ग नहीं है। इसलिए दोनों स्वीकारो। गाथा कह रही है, कि यदि जिनशासन में दीक्षित हो तो, निश्चय व व्यवहार को मत छोड़िये । आदेश कर रहे है। यदि व्यवहार को नहीं जानता है, तो तीर्थ का छेद करता है, यानी महावीर का तीर्थ गया तेरे हाथ से। 'पुरुषार्थसिद्धि उपाय' में भी यही गाथा है। उससे व्यवहार तीर्थ का नाश हो जायेगा । निश्चय को नहीं मानोगे, तो तत्त्व का नाश हो जायेगा । क्योंकि निश्चय 'तत्त्व' की बात करता है, व्यवहार 'तीर्थ की बात करता है। यदि इनमें से एक को भी भंग कर दोगे, तो आप जैनशासन में दीक्षित नहीं हो । चाहे निश्चय कथन हो, चाहे व्यवहार कथन हो, पर दोनों कथन किये जाते हैं, वे व्यवहार से ही किये जाते है। जो भी कथन होगा, व्यवहार से होगा। भाषा में भिन्नत्व है, वस्तु में भिन्नत्व नहीं है। अन्यथा मंदिर, धर्मशाला, स्वाध्यायभवन बनवाना पाठशाला चलाना, ग्रंथ प्रकाशित करना, ये सब मिथ्या हो जायेंगे। क्योंकि व्यवहार तो मानते ही नहीं हो। तब क्या बचा आपके पास? कुछ भी नहीं बचेगा। फिर किसकी वंदना, कौन वंदनीय, क्यों झगड़ते हो, हमें आदिनाथ के पास जाना है, सम्मेदशिखर जाना है ? कहाँ भटकते हो? चैतन्य तीर्थ में लीन हो जाओ । ज्ञानी ! आप विकल्प मत करो इस ग्रंथ में एक-एक ग्रन्थि को खोला है।
॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ॥
आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द परम तत्त्व का व्याख्यान कर रहे हैं। तत्त्व में विपर्यास नहीं होता, विश्वास रखना । तत्त्व का विपर्यास आप कर नहीं पायेंगे । तत्त्व का विपर्यास तुम्हारी दृष्टि में होता है, तत्त्व का विपर्यास वस्तु में किंचित भी नहीं होता। समझना है, बहुत गहरा शब्द है। तत्त्व विपर्यास वस्तु में किंचित भी नहीं होता, वस्तु स्वतंत्र ही है। तत्त्व विपर्यास तेरी दृष्टि में होता है। तत्त्व को नहीं बदला जाता, पर तू अपनी दृष्टि को विपरीत करके अपना ही अहित कर लेगा। तत्त्व के स्वरूप को विपरीत कहने से तत्त्व विपरीत नहीं हो जाता। क्यों, ज्ञानी ! तू बेटा है न ? यदि पिता की दृष्टि से तू बेटा है और आपके पिता आपको पिता कहने लग जायें, तो क्या आप पिता के पिता हो जायेंगे? जगत में हँसी ही करा पाओगे, उपहास ही करा पाओगे, कि कैसा अज्ञानी जीव है जो अपने आपको अपने पिता का पिता कहता है । लेकिन संबंध तो नहीं बदल जायेगा, संज्ञा से वस्तु का स्वभाव बदलता होता, तब पता नहीं आज वस्तु का क्या होता। यदि संज्ञा से गुण आते, अगर संज्ञा से स्वभाव बदलता होता, तो जो अपने भवन का नाम अरहंत रखे है, तो वह भवन अरहंत
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