SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय देशना - हिन्दी ૧૬૧ वर्तमान में सिद्ध पर्याय असत्प है और मनुष्य पर्याय सत्प है। ये सप पर्याय का विनाश होगा, तभी असत्रुप पर्याय आपको प्राप्त होगी, समझ गये न? आप मनुष्य हो, तो नष्ट होगे कि नहीं? दूसरी पर्याय में जायेगा, वह दिख रही है क्या ? नहीं दिख रही। तो असतूप है कि नहीं? और तू सत् है कि नहीं? तेरा विनाश होगा कि नहीं? सत् का विनाश हो जायेगा, असत् का उत्पाद हो जायेगा, तू धौव्य रहेगा ।यह जैनदर्शन है। केवली के ज्ञान में भी सद्-असदपना होता है, नहीं तो कूटस्थ हो जायेगा । जैसा है, वैसा जानते हैं। ज्ञान तो त्रैकालिक रहता है, पर निर्णय करने की ताकत आपके मेधा में होती है और मेधा जो है, वह आयुर्वेद का विषय है। मस्तिष्क में मस्तिष्क होता है एक अंजली प्रमाण । मस्तिष्क तरल द्रव्य है और ब्रेन हेमरेज यानी मस्तिष्क कटकर रक्त प्रवाह सूख गया, नशें चिपक गई। वह सूखता कब है ? जब व्यक्ति को दूध पीने को न मिले, क्योंकि शरीर को कैल्शियम चाहिए। वह हड्डियों से लेता है, तो हड्डी दुबली होती है। ऐसे ही शरीर को वीर्य चाहिए और व्यक्ति वीर्य का नाश कर बैठता है, तो वह उपयोग मस्तिष्क से लेता है और मस्तिष्क सूख गया तो गये काम से। जीते रहो आयु कर्म से, लेकिन समझने समझाने वाला गया । मस्तिष्क नाम का तरल द्रव्य है, उसे मत सुखाना । उपचार बताऊँ ? मनुष्य का मस्तिष्क है नारियल के आकार का होता है। मस्तिष्क सूखे तो नारियल का पानी पिलाओ, मस्तिष्क से मस्तिष्क बनेगा। बहुत गंभीर है जैनागम। हमारे यहाँ जैन समाज करोड़पति, अरबपति है, लेकिन हमारे जैनागम के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए खर्च नहीं करते, बाकि कामों के लिए करते हैं। जैसे आज वैदिक दर्शन के विज्ञान की खोज कर रहे हैं, लेकिन आपके यहाँ मैं कह देता हूँ, आप सुन लेते हो। लेकिन, अहो श्रावको ! यहाँ से रिसर्च (अनुसंधान) कराई जाये, तो सारे विश्व में जैनत्व छा जाये। जितना सार भरा है, द्रव्यानुयोग में भरा है, और करणानुयोग में तात्विक तत्त्व भरे हैं । पर द्रव्यानुयोग व करणानुयोग बिना चरणानुयोग के होता नहीं है। प्रथमानुयोग तो इसलिए है, कि ऐसा किसने किया ? विश्वास दिलाने के लिए प्रथमानुयोग होता है । रहस्यों की बात दो अनुयोग करते हैं, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग । जिस दिन जैनदर्शन से द्रव्यानुयोग का पक्ष हटा दोगे न, उस दिन जैनदर्शन के पास कुछ भी नहीं बचेगा । आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि न खुली होती और वे द्वितीय श्रुतस्कन्ध का उल्लेख न करते, तो आज दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही आम्नाओं में कुछ भी नहीं होता। एक पक्ष का ही अभाव था। आचार्यों ने सिद्धांत लिखा है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने द्रव्य के स्वरूप का व्याख्यान किया एवं आचार्य स्वामी. पुष्पदन्त भतवलि आदि ने करणानयोग, सिद्धान्तशास्त्र का व्याख्यान किया है एवं सिद्धि की है। इसलिए दोनों ही आचार्यों की लेखनी उपादेय है, दोनों ही चाहिए। टीका की गाथा को पढ़ना ही नहीं, रटना भी है और चिन्तन करना है - जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उणतच्चं ॥ यह क्षेपकगाथा है, कलश नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य अमृतचन्द्र की भी नहीं है। परम्परा में चली आ रही है। द्रव्यसंग्रह, पंचसंग्रह में यह लिखी नहीं गई। यह भगवान् महावीर स्वामी, गौतम स्वामी की परम्परा से चली आ रही है। जैसे धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संयमो तवो । देवा वितं णमस्संति जस्स धम्मे सया मणो ॥८ वीर भक्ति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy