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________________ समय देशना - हिन्दी १६० ज्योति स्वरूप है । विषय-विषयी का सन्निपात वह दर्शन है। यहाँ दर्शन का मतलब सम्यक्दर्शन नहीं पकड़ना, क्योंकि सम्यक्दर्शन जीव का लक्षण नहीं है। यदि सम्यक्दर्शन जीव का लक्षण हो जायेगा । तो मिथ्यादृष्टि अजीव हो जायेगा, तो मिथ्यादृष्टि जीव का लक्षण कर दो । यदि मिथ्यादृष्टि जीव का लक्षण करोगे तो अनंतानंत सिद्ध और क्षायिक क्षायोपशमिक सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टि अजीव हो जायेंगे। इसलिए सम्यक् दर्शन जीव का लक्षण नहीं, सम्यज्ञान भी जीव का लक्षण नहीं । जीव का लक्षण चिप्रकाश दर्शन-ज्ञान मात्र है। "चैतन्य लक्षणो जीवा''। आचार्य ऐसे नहीं थे जो चिंतन न करते हों । वे जीव का लक्षण सम्यक दर्शन लिख सकते थे। सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्ष का मार्ग तो है, लेकिन जीव का लक्षण नहीं है। जीव का लक्षण जब भी करना, तो मात्र "चेतना लक्षणो जीव" । 'सवार्थसिद्धि का सूत्र है यह। आचार्य कुन्दकुन्द से पूछना नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती से पूछना। वे कहेंगे, "उपयोगोलक्षणम्"। चेतना ही उपयोग है, उपयोग ही चेतना है - "चैतन्यानुविधायी परिणामो उपयोग:' । अन्तरंग व बहिरंग के निमित्त जो चैतन्य लक्षण है, वह उपयोग है। आत्मा में कोई विशेष गुण है, वह ज्ञान है । परमभाव ग्राहक गुण है, ज्ञायकभाव है। अब जो सिद्धांत शास्त्रों में लिखा है कि, 'चेतना लक्षणो जीवा, तत्र ज्ञानदर्शन, इसे तोड़ मत देना । ज्ञान-दर्शन गुण ही आत्मा का लक्षण है। जब हम 'परमभाव ग्राहक' शब्द का प्रयोग करते हैं तो ज्ञान ही बचता है। दर्शन कहाँ गया? गौण नहीं किया। ये पेन आप जान रहे हैं कि देख रहे हैं? ये पेन है। ये आपने देखा और जाना। लेकिन किसी ने कहा कि पेन है, तो आपने जाना कि नहीं? जानो, फिर भी देखते है ? अचक्षुदर्शन एवं चक्षुदर्शन का विषय बन गया । मन किसका विषय बनता है ? अचक्षु दर्शन । विषय-विषयी का सन्निपात दर्शन में होता है। पहले दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा। जो विषय-विषयी का सन्निपात था वह जान ही तो रहा था, वह सामान्य प्रतिभास है। वह कौन-सी वस्तु का है ? निर्णय नहीं है न, लेकिन है कि नहीं? आपकी सभी बात समझ रहा हूँ, आप डर क्यों रहे है? आप इसलिए डर रहे हो न, कहीं महाराज दर्शन उपयोग का अभाव तो नहीं करने वाले है। मैं दर्शन उपयोग का अभाव नहीं कर रहा हूँ, किंचित भी नहीं, क्योंकि महासत्ता का ग्रहण दर्शन है। महासत्ता, अवान्तरसत्ता। महासत्ता को ग्रहण करता है दर्शन, अवान्तरसत्ता को ग्रहण करता है ज्ञान । ये सब हैं आत्मा में। परमभाव ग्राहक जो जीव का धर्म है, उसमें दर्शन है, वह भी ज्ञान ही है। आप कहेंगे कि शंकर दोष हो जायेगा । दो गुण को मिश्र नहीं करना । मिश्र कर दोगे तो शंकर दोष आ जायेगा। लेकिन वस्तु के स्वभाव की प्रधानता से कथन करोगे, तो दर्शन शामिल हो जायेगा। फिर से एक प्रश्न है। घृत भिन्न है, दुग्ध भिन्न है, मक्खन भिन्न है, लेकिन मक्खन और घृत में दूरियाँ कितनी हैं ? दूरियाँ न होती, तो दो संज्ञायें क्यों? दूरियाँ ही हैं, तो मक्खन से घृत क्यों? अंतर है । एक में स्वच्छता/निर्मलता है, दूसरे में मलीनता है। ज्ञान जो है, विशद् दर्शन प्रकाश है। लेकिन अवस्था वह आत्मा की ही है। दर्शन जो है, वही आत्मा की अनुभूति है, आत्मग्राही दर्शन । 'द्रव्यसंग्रह' में कहा है। सत् ही द्रव्य का लक्षण है, असत् द्रव्य का लक्षण नहीं है । पर चतुष्टय की अपेक्षा असत् है, स्वचतुष्टय की अपेक्षा सत् ही होता है। सत् का विनाश, असत् का उत्पाद भी होता है । वही द्रव्यदृष्टि है। सत् का विनाश, असत् का उत्पाद नहीं होगा, तो आप कूटस्थ हो जाओगे, कूटस्थ नित्य हो जाओगे। पयार्यदृष्टि से जो वर्तमान मेरी मनुष्य पर्याय है, वह सत् दिख रही है। इसका विनाश हुए बिना देव पर्याय मिलेगी नहीं। एक द्रव्य में दो पर्याय उत्पन्न नहीं होती। आपमें वर्तमान में सिद्धपर्याय है क्या ? आप वर्तमान में संसारी पर्याय में नहीं हो क्या ? तो इसका विनाश होगा कि नहीं? सिद्ध का उत्पाद होगा कि नहीं, आपकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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