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समय देशना - हिन्दी
१६४ पर, कोई स्थान ही नहीं था। आचार्य महाराज जहाँ विराजते थे, उनके ही नीचे मैं बैठता था। उनके ऊपर से पानी आ रहा था, वही पानी मेरे ऊपर आ रहा था। आनंद अलौकिक था। विचार कर रहे थे, कि भगवान् पार्श्वनाथ पर कैसे पानी गिरा था। उस प्रकृति के परिणमन को देख रहा था, प्रकृति का रूप प्रकृतिभाव से।
तीन प्रकृति पर ध्यान दो। एक वातावरण की प्राथमिकता, एक दिगम्बर मुद्रा । कपड़े का वेष प्रकृति नहीं है, विकृति है। जैसा है वैसा ही रहना ये है प्रकृति का रूप, उसका नाम है दिगम्बर मुद्रा। ये दो तो मिल जायें, परन्तु परिणामों की प्रकृति मिल जाये, तो तुम्हारी दुर्गति बच जायेगी नियम से । दुर्गति नहीं होगी, द्रुतगति होगी, शीघ्र गमन होगा । शिवत्व की ओर । सम्यक्दृष्टि जीव कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। उसकी द्रुतगति होती है सिद्धालय की ओर । किंचित भी सहजभाव में परीक्षा करना अपनी-अपनी, अब किसी से पूछना नहीं। सहजभाव से परिणामों में परतंत्रता आ रही है तो, विश्वास रखना, आपके अशुभ आयु का बंध हो गया। सहजभाव से मुस्करा रहा है, बगल में किसी के प्रति अशुभ भाव नहीं आ रहा है, तो उसका शुभ आयु का बंध है। और जिसके परिणाम चौबीस घंटे कलुषित रहते हैं, समझ लेना कि खोटी गति का बंध हो गया। संशय नहीं है। हे ज्ञानी ! गूढगर्भ भी रह जाये, उदर बताये या न बताये, पर अधर बता ही देंगे कि गर्भ है। समझनेवाला चाहिए। बहुत सारे रोगों का परीक्षण ओठों से होता है। दुर्गति का बन्ध हुआ है, सुगति का बन्ध हुआ है किसी का मुख बताये या न बताये, पर आपकी मुखाकृति बताती है, कि तेरा गमन कहाँ होने वाला है।
पंचमकाल में साधना जीवन्त रह सकती है, यदि साधु संग में रह कर, ऐसे ही तत्त्व चिन्तन होता रहेगा तो, अन्यथा मन चंचल है, कब भ्रमित होगा पता नहीं और ये जिनमुद्रा की अनुभूतियाँ हैं, वे नहीं मिलेंगी, जीवन तो निकल जायेगा। विश्वास रखना, एक मुनिराज चाहे तंत्र मंत्र करे, तब लकड़ी का होम तो हो जायेगा, पर कर्मों का होम नहीं होगा। इसलिए वीतराग जिनत्व की अनुभूति होती है जिनयोगियों को, तंत्र-मंत्र-जादू-टोने से बचकर इस आत्मा की रक्षा करें।
हे मुमुक्षु ! संज्ञा ही संज्ञान का नाश कराती है। व्यक्ति सोचता है कि भवन पर भी नाम लिखा जाये तो मेरा ही लिखा जाये । शब्द भिन्न थे, तू भिन्न था, भवन भिन्न था, पर तू अभिन्न को भूलकर भिन्नों में अभिन्नत्व को खोज रहा था। इसी का नाम बहिरात्मभाव है । क्योंकि परिणति कहाँ जा रही है ? पर्यायों में या पर्यायी में। राग ही तो पर्यायी को खोखला कर रहा है। जब कोई अपना वंशात्मक नाम ले, तो आनंद आता है।
हे मुमुक्षु ! अट्टाईस मूलगुणों का निर्दोष पालन करने पर भी संज्ञा का राग तिर्यञ्च बना देता है। जो मृदुमति नाम के मुनिराज थे न, उनके द्रव्यमूलगुणों में कोई कमी नहीं थी, चतुर्थ काल का जीव था, लेकिन एक क्षण को क्या भाव आ गये कि नाम बता दूंगा तो लोग मेरी पूजा नहीं करेंगे। ये संज्ञा के राग ने संज्ञान खो दिया। ऐसा राग बना कि मायाचारी में ढकेल दिया कि वह त्रैलोक्य मंडन नाम का हाथी हुआ। बिना प्रमाण के अपन को कुछ नहीं कहना । पर ध्यान दो, यहाँ एक बात और ध्यान देना, संयम किसी भी पर्याय में स्वीकार किया जाये, वह व्यर्थ नहीं जाता। एक दिन को भी संयम लिया है, वह व्यर्थ नहीं जाता। फिर तिर्यच कैसे बन गये, तिर्यञ्च संयम से नहीं बने। संयम में कुभाव-भाव कर लिए, इसलिए बन गये। पर संयम का प्रभाव देखो, जब वह हाथी मुनि को देखता है, तो उसे जातिस्मरण हो जाता है, कि मैं मुनि था। उसने
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