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समय देशना - हिन्दी
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की भाषा सुनो। साधन के लिए साधना नहीं की जाती, साध्य के लिए साधना की जाती है । परन्तु साधना किये बिना साध्य मिलता नहीं है। इसलिए साधना करना ही चाहिए। पर साधना के लिए साधना करे, ये प्रज्ञा
न्यूनता है । यथार्थ मानिये, परम निश्चय वाला तो दिगम्बर मुनि होता है। क्यों ? व्यवहार प्राप्त कर चुका है, निश्चय की प्राप्ति में लगा है। ऐसा नहीं करना कि व्यवहार प्राप्त कर लिया है अब व्यवहाराभास में जी रहा है। किसी ने दीक्षा ली, और मठ बनाकर बैठ गये और गाय-भैंस पाल ली, अब वे श्रमण बचे, कि श्रमणाभास हो गये । व्यवहार लिया था निश्चय के लिए, व्यवहार भी दे गये पर के लिए। कभी दिगम्बर मुनि बनके किसी भक्त के पीड़ित होने पर यह भूल मत कर बैठना कि मेरी तपस्या के जो क्षण थे, वह इसको दिये ताकि वह ठीक हो जाये । वात्सल्य बोल रहा है, कि जैन सिद्धांत का नाश बोल रहा है मेरी तपस्या का अंश इसको चला जाये । भो ज्ञानी ! होता स्वयं जगत परिणाम, कण-कण स्वतंत्र है । पर की सत्ता में तेरी सत्ता चली गई, फिर तो हो गया काम। ये व्यवहार और वात्सल्य के पीछे जैनत्व के प्रति अवात्सल्य भाव है । मुझे आपसे वात्सल्य बाद में है, पहले जैन सिद्धांत के सूत्रों पर है । आपके राग में हम सिद्धांत के सूत्रों का खंडन नहीं कर पायेंगे । आपको यह भावना भाना चाहिए कि, भगवन् ! इस जीव का कर्म विपाक शांत हो । सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र - सामान्य- तपोधनानाम् ।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्र || १४ || शांतिभक्ति ॥ पद्य तो पढ़ना चाहिए ।
आरोग्ग बोहिलाह दिंतु समाहिं च मे जिणवरिंदा ।
किंण ह णिदाणमेयं णवरि विभासेत्थ कायव्वा ||५६८||मूलाचार।।
जिनवरदेव ! मुझे आरोग्य की प्राप्ति हो, मुझे समाधी की प्राप्ति हो। मुझे ही नहीं, मेरे संघ की श्रेष्ठ समाधि हो। ये आदेश नहीं है, यह भक्ति की भाषा प्रार्थना चल रही है। मुझे मालूम है, कि आप कुछ लेते नहीं, देते नहीं । आप देते-लेते होते तो छः महीने क्यों घूमते ? हे प्रभु! यह मेरी प्रशस्त भावना है। आप तो न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ ! विवांतबैरे ।
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तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ वासुपूज्यस्तवनम् ॥
हे जिनवर देव ! जो निन्दा करे, उससे आप बैर धारण नहीं करते, जो पूजा करे, उसको आप कुछ देते नहीं, फिर भी मैं आपकी कृतकारित अनुमोदित पूजा करता हूँ। क्यों ? मैं अपने चित्त को पवित्र करने के लिए, दुरित कर्मों को नष्ट करने के लिए करता हूँ । चित्त की निर्मलता के लिए भगवत् भक्ति करना चाहिए , लेकिन भगवान् से माँगने के लिए किंचित भी नहीं करना । क्यों ? 'होता स्वयं जगत परिणाम ।' जो-जो कथन है, सब व्यवहाराश्रित है। जो-जो लक्ष्य है, वह सब निश्चयाश्रित है । इसलिए व्यवहार-भक्ति भी होती है, निश्चय - भक्ति भी होती है । 'नियमसार' में छः आवश्यक हैं । द्वैतभक्ति यानी व्यवहार भक्ति, अद्वैतभक्ति यानि निश्चयभक्ति । जहाँ मैं ही आराध्य व आराधक हूँ, यह निश्चय-भक्ति है । जहाँ पंचपरमेष्ठी आराध्य हैं, यहाँ है व्यवहार भक्ति ।
ज्ञानियो ! आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी कह रहे हैं कि मैंनें तत्त्वों को गहराई से समझा है। सोलहताप का सोना ही स्वीकार होता है, मध्य के ताप का सोना आभूषण तो बनायेगा, पर शुद्ध डली का नहीं कहलायेगा । सोलह ताप के सोने से आभूषण नहीं बनते, मध्य के तापों से आभूषण बनते हैं। आभूषण नाना रूप होते है और डली एकरूप होती है। यह समयसार है। ये नाना रूप शुद्ध सोने में हैं, कि मध्य सोने में ? अशुद्धभाव
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