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समय देशना - हिन्दी
१८३ और इतने से काम चला लेते हो। पर 'श्लोकवार्तिक' में नैगमनय का विशिष्ट वर्णन है । जो 'नय विवरण' नाम का ग्रंथ प्रकाशित हुआ है, वह 'नय विवरण' कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है । आचार्य विद्यानंद स्वामी का 'श्लोकवार्तिक' ग्रंथ उमा स्वामी के 'तत्त्वार्थ सूत्र' पर है। ‘सम्मई सूत्तं' तो सभी को पढ़ना चाहिए। 'द्रव्य स्वभाव प्रकाश नयचक्र' इन ग्रंथों को नय समझने के लिए पढ़ना चाहिए।
नैगम संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र शब्द-समभिरूद्वैवंभूता नयाः ॥३३शातत्त्वार्थसूत्र ॥
आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी की टीका देखें, उसमें आचार्य निश्चय-व्यवहार के लिए क्या कह रहे है? जब निश्चय का कथन करें, तो निश्चयमय हो जाना । जब व्यवहार का कथन करें, तो व्यवहारमय हो जाना तन्मय तो होना ही होगा, अन्यथा आनंद नहीं आता । तात्पर्य समझना । कोई विद्यार्थी जिस विषय को पढ़ रहा है, उस विषय को पूरी रुचि दे तो ही तो विषय तैयार होता है। एक रागी-भोगी जीव मंदिर में राग लेकर आया है, तो वंदना में आनंद नहीं आयेगा । और गृहस्थी के संकल्पों में डूबा हुआ है और वहाँ वैराग्य आ जाये, तो उसकी गृहस्थी भंग होना है। फिर भी परमार्थदृष्टि से गृहस्थ में परमात्मा का नाम आ जाये, तो अच्छा है, पर परमात्मा के नाम में गृहस्थी याद आ जाये तो अच्छा नहीं है। दूकान में भगवान् दिख जाये, तो भाग्यवान् है और मंदिर में दुकान दिखे तो अभागा है। आपको स्वयं निर्णय करना है। आप भाग्यवान् हो या भाग्यहीन हो? गृहस्थी में भी आपको भगवान की याद आये, वह वास्तव में भाग्यवान् है। परन्तु मंदिर में भी यदि दुकान दिखे, तो भाग्यहीन है। स्वप्न में जिनप्रतिमा, जिनवाणी, जिनगुरु समीचीन दिख रहे हैं तो आप भाग्यवान हैं। पर स्वप्न में जिनप्रतिमा हँसते दिखे, तो आप अपना शांतिविधान करा लेना। स्वप्न में प्रतिमा लेटी या तिरछी दिख जाये, गुरु विश्राम करते दिख जायें, तो सुबह शांतिविधान कर लेना, भगवान की माला फेर लेना। दिगम्बर मुनि हँसते नहीं दिखना चाहिए। आप आहार दे रहे हैं, यह तो प्रशस्त है, पर वह कहे कि आहार दे दो. यह अप्रशस्त है। आगम के अनकल दिखना चाहिए, विपरीत नहीं दिखना चाहिए। शुद्ध, शुद्ध हैं, अशुद्ध, अशुद्ध है । शुद्ध की अनुभूति लेनेवाला अशुद्ध पर जाता नहीं, अशुद्ध में तल्लीन होने वाला अशुद्ध को प्राप्त होता नहीं। अशुद्ध मिलने पर भी शुद्ध पर लक्ष्य है, तो सिद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। जो चाहिए है, उसका लक्ष्य तो बनाना ही होगा। लक्ष्य बनाये बिना उपलब्धि होती नहीं। मार्ग होता है, मार्गी की प्राप्ति के पहले, मार्ग के पहले मार्ग का लक्ष्य होता है मार्गी को चाहने वाले के लिए।
आपने निश्चय का निषेध करना शुरू किया और व्यवहार परिपूर्ण कर रहे हो तो आपका व्यवहार कोई काम का नहीं है। आपने द्रव्यसंयम का पालन किया, लेकिन निश्चयनय अध्यात्म का निषेध करते हो चौबीस घंटे, तो आपका द्रव्यसंयम है किसलिए? त्यागियों को तत्त्व की भूल है, संयम का पालन बराबर कर रहे हैं, परन्तु द्रव्यानुयोग पर दृष्टि नहीं है, और जरा-सी कोई तत्त्व की बात करे, तो उसको भिन्न शब्द कहकर गौण कर देना । अब प्रश्न है कि आप साधना कर क्यों रहे हो ? साधना, साधना के लिए होती नहीं, साधना के लिए साधना जो करे, वह उसकी प्रज्ञा की न्यूनता का प्रदर्शन है। साध्य की सिद्धि के लिए साधना करे, यह प्रज्ञा की प्रबलता का प्रदर्शन है। तो साध्य की सिद्धि के लिए साधना है। व्यवहार रत्नत्रय साधन है, निश्चय रत्नत्रय साध्य है । और निश्चय रत्नत्रय पर लक्ष्य ही न जाये, तो व्यवहार रत्नत्रय क्यों हो ? सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सीढ़ी पर चढ़ा जाता है, कि लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सीढ़ी पर चढ़ा जाता है ? इतना आप सबको ज्ञान है। ज्ञानियो ! सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सीढ़ी पर चढ़े तो पैर ही तोड़े, सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सीढ़ी पर नहीं चढ़ा जाता। परन्तु सीढ़ी पर चढ़े बिना लक्ष्य पर नहीं पहुँचा जाता। निश्चय-व्यवहार
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