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समय देशना - हिन्दी
१८२ ये तपस्वी की परिभाषा है, इससे अन्यत्र घटित हो तो तदाभास है। नय की जो परिभाषा है, उस नय से अन्यत्र हो तो नयाभास है । प्रमाण की जो परिभाषा है, प्रमाण से जो अन्यत्र हो, वह प्रमाणाभास है। श्रमण की जो परिभाषा है, उससे अन्यत्र होती है, तो उसका नाम है श्रमणाभास, जैनाभास । कितने संघ होकर चले गये, द्रविणसंघ, यापनीय संघ, गोपृच्छिका संघ। ये सब जैनाभास हैं। जो जिनदेव ने नहीं कहा, वैसा उन लोगों ने करना प्रारंभ किया, तो जैनाभास । सम्यक्त्व की रक्षा श्रमणों से होगी, जैनियों से होगी, जिनागम से होगी। आभासों से नहीं होगी। लगता है, परन्तु होता नहीं है, उसका नाम आभास है। संस्कार हुए, पर संकल्प नहीं लिया, तो काहे का संयम ? संस्कार लोगों के थे, गुरु ने संस्कार लोगों से किये हैं, परन्तु संकल्प तो आत्मा से होता है। संकल्प नहीं है, तो संस्कार काम में नहीं आयेंगे। उसे कहना श्रमणाभास । संस्कार हो, परन्तु संकल्प न हो, उसका नाम है श्रमणाभास । संकल्प है, परन्तु संकल्प में विकल्प आ गये, तो श्रमणाभास । ज्ञानियो ! जैनदर्शन के प्राचीन शब्दों का प्रयोग करती हुई श्रमणचर्या, श्रावकचर्या का व्याख्यान होना चाहिए, अन्यथा श्रमण संस्कृति समाप्त हो जायेगी, भौतिक संस्कृति खड़ी हो जायेगी।
___ हे ज्ञानी ! श्रद्धा 'विश्वास' है, प्रतिज्ञा 'संकल्प' है। विश्वासपूर्वक प्रतिज्ञा होती है, श्रद्धापूर्वक संकल्प होता है। संकल्प भिन्न है और श्रद्धा भिन्न है। एक कारण है, और दूसरा कार्य है।
कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि ।
दीपप्रकाश योरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम ॥३४॥पु.सि.उ.॥ आपको विश्वास हो, कि मुनि बनकर मोक्ष होता है, तो मुनि बनोगे, तो निर्दोष संयम का पालन करोगे। और श्रद्धा बनी रहे, कि मोक्ष होता है, कि नहीं होता है, तो मुनि बने क्यों?
आचार्य पूज्यपाद स्वामि ने 'सर्वार्थसिद्ध' ग्रन्थ में मोक्ष का प्रकरण लिया, तो वैद्य का दृष्टान्त दिया कि आप वैद्य पर पहले विश्वास करते हो, उसके बाद उपचार करवाते हो। रोगी को वैद्य के अनुसार चलना पड़ता है, कि वैद्य रोगी के अनुसार चलता है ? रोगी के अनुसार चलता है तो वह लोभी तो हो सकता है, पर वैद्य नहीं हो सकता। आप हमारे यहाँ आये हैं, तो हम आपसे पैसे ही नहीं खींचना चाहते, हमें अपना भी तो ध्यान रखना है, कि हमारा प्रचार क्या होगा, विचार करो। रोगी के अनुसार वैद्य नहीं चलता, वैद्य के अनुसार रोगी को चलना चाहिए इसी प्रकार रत्नत्रय धर्म रत्नत्रयधारियों के अनसार नहीं चलता. रत्नत्रयधारियों को रत्नत्रय के अनुसार चलना चाहिए। धर्म के अनुसार चलना चाहो तो चलना, पर धर्म को अपने अनुसार नहीं चलाना और आप चला भी दोगे, तो आप चल नहीं पाओगे । कारण क्या है ? आचार्य कुन्दकुन्द देव ने मृदुचर्या वालों पर करुणा नहीं की। उनने करुणा की होती, तो आपकी चल जाती। चौरासी पाहुड लिख दिये, उनसे सब विधान संविधान लागू कर दिया। आप अन्यथा क्रिया करोगे भी न, तो संविधान को पढ़ने वाले कोई-न-कोई मिल जायेंगे और कहेंगे कि इनकी वृत्ति अनुकूल नहीं है । व्यवहार वही है, जिससे निश्चय की प्राप्ति हो निश्चय वही है, जो व्यवहारपूर्वक हो । भाषा का भेद है, वस्तुभेद नहीं है। सातों नयों में भाषा-प्रवृत्ति का ही भेद कर, वस्तु की प्ररूपणा की है । वस्तुभेद हो जायेगा, तो नय लगेगा किसमें? पदार्थ तो होंगे।
जिनको विशिष्ट नय समझना हो, यानी सबसे कठिन कोई नय है तो वह है नैगमनय । वह नैगमनय का विषय बहुत ही सूक्ष्म है । सभी की समझ में नहीं आयेगा। आपने भूत, भावि, वर्तमान तीन भेद कर लिये Jain Education International
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