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________________ समय देशना - हिन्दी १८१ ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ।। aaa निश्चयनय, व्यवहारनय इन दोनों नयों से वस्तुभेद नहीं समझना । ये वस्तुभेद नहीं है । यह व्याख्यान-भेद है। आप जब व्यवहार धर्म की बात करें, व्यवहार धर्म और जब आप निश्चय धर्म की बात करें तो निश्चयधर्म । व्यवहार धर्म यानी पिच्छि-कमण्डलु को स्वीकार लेना, निश्चय धर्म यानी निज स्वरूप में लीन होना । ज्ञानी ! इसमें किंचित कमी है, यहीं भ्रम हो जाता है। पिच्छि-कमण्डलु, जिनमुद्रा, ये मुनि का भेष है, न कि दिगम्बर मुनि की चर्या । यह भेष मुनि का धर्म है, लेकिन चारित्र नहीं है । एक डॉक्टर की पहचान उसकी ड्रेस से हो जाती है। वह उसका भेष है, धर्म नहीं है। ऐसे है जिनमुद्रा को स्वीकार कर लिया है, यह द्रव्यसंयम नहीं है। यदि इसका नाम द्रव्यसंयम है, तो डॉक्टर का फोटो द्रव्य डॉक्टर हो जायेगा। बारहवीं गाथा है। पिच्छि-कमण्डलु, द्रव्य मुद्रा है, द्रव्यसंयम नहीं है। ज्ञानी ! कोई व्यक्ति डॉक्टरी पढ़ा नहीं है, डॉक्टरी करता नहीं है, पर किसी ने उसके कान में डॉक्टर की जो पहचान होती है (आला) उसे लगा दिया, तो बताओ वह द्रव्य से डॉक्टर है, कि भाव से डॉक्टर है ? एक व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य व्रत लिया नहीं, प्रतिमा धारण का नहीं, मात्र उसने सफेद वस्त्र धारण किया है, तो वह ब्रह्मचारी है, कि ब्रह्मचारी भेष है ? वह ब्रह्मचारी द्रव्य नहीं है, ब्रह्मचारी भाव भी नहीं है, ब्रह्मचारी भेष मात्र है। ऐसे ही जिनमुद्रा को स्वीकार किया, पिच्छि-कमण्डलु धारण किये, यह मुनिवेश है । वह द्रव्यमुनि भी नहीं है। अभी आप दो समझते थे, अब तीन करिये - (1) मुनिवेश (2) द्रव्यमुनि (3) भाव मुनि। हे ज्ञानी ! जो ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार किये है, परन्तु अंतरंग में भाव नहीं लग रहे, फिर भी पालन कर रहा है, ये द्रव्य-ब्रह्मचारी है। और भावसहित पालन कर रहा है, वह द्रव्यसहित भाव-ब्रह्मचारी है। ऐसे ही जो अट्ठाईस मूलगुणों में, पाँच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि तेरह प्रकार चारित्र में किंचित भी दोष नहीं लगाता है और वे उसका पालन करते हैं, वे द्रव्यमुनिराज है। मुनिराज की विशद, निर्मल, उदासीन वृत्ति परभावों से भिन्न परिणत है तथा कषाय की तीन चौकड़ी का अभाव है। वे निश्चय से मुनिराज के भाव है, वह भावमुनि है। चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोग-परिहरणात् । सकल-कषाय विमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।३९॥पु.सि.उ.। समस्त सावध क्रियाओं का जहाँ अभाव हो चुका है, वह द्रव्यसंयमी होता है। सावध यानी पाप रूप हिंसा रूप जो भी प्रवृत्ति है, उसका अभाव होता है। इसका नाम द्रव्यसंयम है और जहां काषायिक भावों का अभाव होता है, उसका नाम भावसंयम है। अब समझ में आता है, परन्तु खोज आप करना नहीं चाहते। क्यों ? क्योंकि हमारे प्रमाद से क्षयोपशम का विषय नहीं बनता। पर ज्ञान का विषय तो बनता है। हमें तीनों प्रकार का ज्ञान रखना अनिवार्य है। अन्यथा आभास की परिभाषा क्या है ? ततोऽयत्तदाभासम्" परीक्षामुख के छठवें अध्याय का पहला सूत्र उससे अन्यत्र है जो भाषा अर्थात् जो मुनि के स्वभाव से अन्यत्र है वह तदाभासा है। 'सम्यज्ञानं प्रमाणं' जो सम्यक् ज्ञान न हो, वह ज्ञानाभास, प्रमाणाभास है। ऐसे ही - विषयाशावशातीतो निरारंभो परिग्रहाः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते ॥१० र.क.बा.|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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