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समय देशना - हिन्दी
१८० यह करो, वह करो। आपने अनर्थ कर लिया। एक शब्द से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अज का अर्थ पुराना धान्य होता है। आज अज्ञ प्राणियों ने अज का अर्थ बकरा बना लिया।
___ इसलिए जिनसूत्रों की व्याख्या अन्य धर्म वाले से कराना नहीं । वह अपने धर्म के अनुसार ही अर्थ करेगा।
आप अपने निजभाव के ही कर्ता-भोक्ता हो, परभाव के नहीं हो। ऐसा कहते हो, तो आज से आपका भोजन का त्याग । संसारदशा में दोनों का कर्ता-भोक्ता है। पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है व्यवहारनय से । रागादि का कर्ता है अशुद्धनिश्चयनय से । चेतनभावों का कर्ता है शुद्ध निश्चयनय से । उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह मकान किसने बनाया ? जो तत्त्व को समीचीन कहे, उनकी बात को सुन लेना | जो विपर्यास करके बोले तो उनसे पूछना कि, धर्मशाला, मठ, मंदिर, तीर्थ नये-नये बनाना क्यों? पहचान के लिए? जबकि नगर में कितने मंदिर हैं, फिर भी बना रहे हैं। जब तू कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं, फिर किसके लिए ? आत्मा का धर्म है समयसार, जिसके लिए ईंट-चूने के भवन की जरूरत नहीं होती। चैतन्यभवन के धर्म को कहाँ पुद्गल भवन में रख रहे हो? अंतर क्या है ? समयसार का फल होता है भवनों से बाहर निकल जाना । ये कैसा समयसार का फल है जो नये-नये भवन बना रहे हो? यह समयसार का फल नहीं है। ये सम्प्रदाय का फल है। मेरे से चर्चा करोगे तो मैं सिद्ध कर दूंगा कि भवन मेरा है। विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से तू भवन का भी कर्ता है । समयसार में यह भी लिखा है । घटपट आदि का कर्त्ता है। और सद्भूत व्यवहारनय से तू निज स्वभाव का ही कर्ता है। शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से शुद्ध चैतन्य का कर्ता है । अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से तू अशुद्ध भावों का कर्ता है। इतना नय का ज्ञान होगा, तो कभी मिथ्यात्व में डूब नहीं सकता। सम्यक्त्व की रक्षा के लिए नय का ज्ञान होना अनिवार्य है। आचार्य देवसेन स्वामी नयचक्र में लिखते हैं नयनों से विहीन मार्ग पर चल नहीं पाता, मार्ग पर चले बिना मार्गी को प्राप्त कर नहीं पाता। जो निश्चय व व्यवहार दो नय से विहीन हो गया है, वह मोक्षमार्ग पर चलेगा कैसे? दोनों नय का ज्ञान अनिवार्य है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी आज इसी बात को टीका में कह रहे हैं। तू जिनशासन का शत्रु है। जो निश्चय को नहीं मानता, वह निश्चयतीर्थ का घातक है, और जो व्यवहार को नहीं मानता, वह व्यवहारतीर्थ का घातक है। उभयतीर्थ ही तीर्थ है । उभय तीर्थ तुम्हारे पास हैं । अनंत ज्ञेयों को अनंतरूप में जानना चाहिए, प्रमेयों को, प्रमाता को जानना चाहिए। परन्तु सभी प्रमेय प्रमाता के लिए उपादेय नहीं हैं। उपादेय प्रमेय को ग्रहण करता है, हेय प्रमेय को त्यागता है , उपेक्षणीय पर उपेक्षा करता है। परन्तु जानना सबको है। "बिन जाने ते दोष गुणन को कैसे तजिये गहिये''। वकील साहब ! आपके पास कोई निर्दोषी व्यक्ति जिसे दोष में फँसा दिया हो. वह आया बोला आप हमें निर्दोषी करा दीजिए।यह बताओ कि आप उस निर्दोष के निर्दोषपन को भी सुनोगे, कि उस पर लगे आरोप को भी सुनोगे? लक्ष्य सत्य का है, पक्ष उभय का है। लक्ष्य उपादेय का है, परन्तु पक्ष हेय न उपादेय का है। जब तक हेय व उपादेय दो पक्ष नहीं बनेगे, तब तक आप हेय को छोड़ोगे कैसे ? उपादेय को स्वीकारेंगे कैसे ? वकील यदि 'परीक्षामुख' 'न्यायदीपिका' पढ़ ले, तो देश में विख्यात होवे। सपक्ष सत्य, विपक्ष व्यावृत्ति । आपके यहाँ बहुत आचार्य भगवान् हुये, वे कालेज आदि नहीं गये, तब भी प्रकाण्ड विद्वान् कैसे बन गये? उसका कारण था जैनदर्शन का न्याय ग्रन्थ । वह प्रज्ञा को विशाल करता है। लोक में कर्म की, धर्म की सभी व्यवस्था कैसी है वह पद्मपुराण में दी गई है। Jain Education International
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