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समय देशना - हिन्दी "स्याद् अस्ति नास्ति' लेखनी स्वचतुष्टय में है-अस्ति लेखनी माइक नहीं है- नास्ति । ऐसा कोई द्रव्य नहीं जिसमें दो धर्म न हों । आपके अंदर भी दो धर्म हैं । आप वर्तमान में शक्तिरूप में शुद्ध भी हैं, और अभिव्यक्ति रूप में अशुद्ध हैं। प्रत्येक द्रव्य में अनंत धर्म हैं । पदार्थ अनेकान्तात्मक है । व्याख्यान स्यादवाद है, वस्तु अनेकान्तात्मक है, स्याद्वाद भाषा है, अनेकान्त वस्तु है। श्रमण संस्कृति में जो 'संत' शब्द का भी प्रयोग करोगे न, वह भी स्याद्वाद अनेकान्त से सिद्ध करेंगे, अन्यथा हम मानेंगे नहीं। संत लिखो, फिर उसका विग्रह करो। सत्+अंत । यदि हम दिगम्बर मुनि के लिए को संत शब्द का प्रयोग करें, तो लोक में व्याप्त 'संत' शब्द पर मत जाना। सत्+अंत में अंत यानि धर्म, जिसमें पाये जायें, उसका नाम है संत । सत् यानी सत्ता, लक्षण । अंत यानी धर्म । अनंत गुणों से युक्त जो जीव है, उसका नाम है संत । अनेकांतात्मक धर्म जिसमें अंदर विराजता है, उसका नाम 'संत' समझ में आ रहा है। आप मंगलाचरण करते हैं -
अनंतधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम् ।। (अ.अ.क.) ॥२॥ परमागमस्य जीवं निषिदुजात्यन्धसिंधुरविधानम् । सकलनय विलसिताना, निरोध मदनं नमाम्यनेकान्तम् । पु.सि.उ.
॥२॥
व्यक्ति की वंदना नहीं, वस्तु की वंदना नहीं, अनेक धर्मों से युक्त धर्मो की वंदना है। क्या स्याद्वाद दर्शन है। जब व्यवहार दृष्टि में बैठता हूँ, और तत्त्व का चिंतन करता हूँ, तब मैं अपने को परम सौभाग्यशाली स्वीकारता हूँ। क्यों? क्योकि मैं स्याद्वाद दर्शन में जन्मा हूँ। पर्याय जन्म के लिए पर्याय प्राप्ति के लिए अच्छा नहीं मानता हूँ। परन्तु यह अच्छी बात है कि जब संसार हमें मिला ही है, रहना ही पड़ रहा है , तो अच्छा यह हुआ कि स्याद्वाद दर्शन में जन्म लिया। नहीं तो कौन से मिथ्यात्व की पुष्टि करनी पड़ती। कौन से मंत्रों को बोलना पड़ता, क्या-क्या अनाचार नहीं करना पड़ते। ये कितना स्वच्छ दर्शन है, जिसमें बंधन को स्थान नहीं । कण-कण की स्वतंत्रता का सिद्धांत स्याद्वाद से सिद्ध है । तत्त्व त्रैकालिक है। शब्द कह रहा है -
अयं अर्थोनायमर्थो इति शब्द वदन्ति नः ।
कल्ययोऽमर्थः पुरुषैस्ते व रागादि विप्लुताः ॥प्रमेय रत्नमाला ॥ मेरा यह अर्थ है यह मैं बोलता नहीं हूँ। जगत के स्वार्थी जीवों ने मेरे अर्थ कई कर लिये हैं। शब्द ने कब कहा कि मेरा अर्थ यह है, कि वह है ? बलि शब्द का दुरुपयोग लोगों ने किया है। 'धवला' जी नौवीं पुस्तक एवं 'महापुराणमें समवसरण का वर्णन है, उसमें चारो ओर बलिपीठ होता है । और वह बलिपीठ कर्नाटक के मंदिर में बना है। मंदिर के सामने चबूतरा बना रहता है। बलि यानी नैवेद्य । आपके यहाँ बलिपीठ है, पर आप प्रयोग नहीं करते उस शब्द का । जो बैंच रखी रहती है मंदिर के सामने, वह बलिपीठ है। उस पर द्रव्य चढ़ाया जाता है। उसका नाम है बलिपीठ। पर लोगों ने 'बलि' शब्द को हिंसा में जोड़ दिया, और जीवों का वध करने लग गये, तभी से हमने 'बलि' शब्द का प्रयोग बंद कर दिया। काल के दोष से लोग दूषित चित्त् वाले हुये, तो उनके दूषित चित्तों ने शब्द को भी बदनाम कर दिया। क्योंकि शब्द कहता नहीं है कि मेरा अर्थ Jain Education International
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