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समय देशना - हिन्दी
१७५ जाओगे, इसलिए छोड़ रहा हूँ। एक कहता है कि रात्रि में बहुत जीव का घात होता है, इसलिए नहीं करना। एक बंधक है, एक अबंधक है। एक कहता है कि मंदिर जा रहा हूँ, थैला दे दो, उधर से सब्जी भी ले आऊँगा । दूसरा कहता है कि लाओ, मंदिर की डिब्बी दे दो, सब्जी लेने जा रहा हूँ, उधर से मंदिर भी चला जाऊँगा। दोनों के भावों में कितना अंतर है? एक ने प्रधानता भगवान को दी, दूसरे ने प्रधानता भाजी को दी। बस जिसकी दृष्टि में जो होता है, उसे ही प्रधानता देता है। धोबी को वस्त्र मत देना, पैसा देने पड़ेंगे, मैं धो लूँगा । परन्तु एक कहता है कि धोबी को वस्त्र नहीं देना, क्योंकि 'नदियन बिच चीर धुबाये, कोशन के जीव मराये।" वह तालाब/नदी में वस्त्र धोयेगा, बिना छने पानी में धोयेगा तो अनंत जीव मरेंगे, इसलिए मैं धो लूँगा छने पानी कम पानी में और उस पानी को छत या सूखे स्थान पर डाल दूंगा, जीवों की रक्षा होगी। यह है सम्यग्दृष्टि की ज्ञान, वैराग्य शक्ति । पहले के लोग इस सूत्र में जीते थे। पहले भोजन करते थे, तो थाली को धोकर धोवन को पी जाते थे । आज के कहते है खाने को नहीं मिलता था इसलिये थाली धोकर पी गये। पर उसका उद्देश्य क्या था? दाना नहीं छोड़ना, अन्न देवता है। क्या पता फिर मिला कि नहीं, इसलिए पी जाओ । देखो, मिथ्यादृष्टि ! इसलिए हर क्रिया देखकर प्रभावित मत हुआ करो, पहले अंदर जाया करो । एक कहता है कि नहीं, दाना छोड़कर जाओगे तो सम्मूर्छन जीव हो जायेंगे, मक्खी मरेगी, इसलिए थाली धोकर पी गया । सम्यग्दृष्टि की यह ज्ञान-वैराग्य शक्ति है। काम दोनों का एक था, पर दृष्टि भिन्न थी । बिना द्रव्यानुयोग के चरणानुयोग अधूरा है। आज समझ में आया कि नहीं, बिना चरणानुयोग के द्रव्यानुयोग शून्य
'वह घड़ी कब आये जब मैं मुनि बनकर वन-वन डोलूँ ' ये भावमुनि नहीं है, भावना का मुनि है। पर आप इस पंक्ति को पढ़कर भावमुनि बन गये हो । तत्त्व का विपर्यास कैसे हो सकता है ? मुनि बनकर वन-वन डोलोगे यह मुनि बनने की भावना है। जिनदीक्षा लेना, संयम स्वीकारना अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानाचार कषाय, प्रत्याख्यानचार कषाय, इन सर्वघाति प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय, इन्हीं का सद्वस्थारूप उपशम और देशघाति प्रकृति संज्वलन कषाय का उदय होने पर जो जीव के परिणाम है इसका नाम भावमुनि है। ये भावमुनि प्रमत्त हैं संज्वलन का मंद उदय यानी ध्यान में अप्रमत्त हैं। तीव्र संज्वलन का उदय यानी प्रमत्त। जितना गहरे से करणानुयोग बोलो, चरणानुयोग बोलो, पर करणानुयोग की बात इतने गहरे से बोलना जिससे किसी भी अनुयोग के लिये कुछ कहना ही न पड़े।
यहाँ पर द्रव्यश्रावक व भावश्रावक की परीक्षा कर सकते हैं । पूजा कर रहे थे आदिनाथ की, बाहर खड़ी थी गाड़ी। किस की पूजा कर रहे हो? परिणमन करना स्वभाव है, मुनिराज भी छठवे-साँतवे में जाते हैं । घड़ी का पैण्डुलम आता है, जाता है, पर उसे तोड़ मत देना । पूजा को छोड़ मत देना। इसलिए द्रव्यमुनि या भावमुनि कहकर अश्रद्धा में मत डूब जाना । द्रव्यमुनि भी पूज्य हैं, भावमुनि भी पूज्य हैं।
द्रव्यानुयोग की भाषा में निज शुद्धात्म स्वरूप में लीन है भावमुनि और अट्ठाईस मूलगुणों का पालन कर रहे हैं, द्रव्यमुनि । दोनों सम्यक्दृष्टि हैं, द्रव्यसंयम का पालन कर रहे हैं, पहले गुणस्थान में विराजे हैं, द्रव्यमुनि हैं। सम्यक् सहित द्रव्यसंयम का पालन कर रहे हैं, तो करणानुयोग कहेगा भाव मुनि और द्रव्यानुयोग कहेगा द्रव्यमुनि । क्यों ? क्योंकि शुद्धोपयोग में लीन नहीं हैं।
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