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समय देशना - हिन्दी
१७६ "पज्जयमूढा हि परसमया" इस शब्द को पकडकर भटक मत जाना । द्रव्य, गुण, पर्याय के चिंतन किये बिना, शुक्लध्यान नहीं होता। कितना स्पष्ट करूँ ? ''पज्जयमूढा हि परसमया" का अर्थ यह मत समझना । द्रव्य, गुण, पर्याय का चिंतन करना पज्जयमूढता नहीं है। पर्याय की परिणति को निज स्वभाव मानना पज्जयमूढ़ता है। यह द्रव्यानुयोग है, उसको समझने के लिए बहुत पढ़ना, चिंतन करना पड़ता है । मैं तुम्हें सुनाने नहीं आता, विश्वास करना । जितना उपदेश करो, उतना मिलता है। जितना लिखू, उतना लिखने को मिलता है। एक ग्रंथ लिखू तो पन्द्रह बीस ग्रंथों का अध्ययन हो जाता है। जैसे श्रोता मिलते हैं, वक्ता वैसा हो जाता है। "तत्त्वसार'' का व्याख्यान विदिशा में किया था। विदिशा में शुद्ध मुमुक्षु थे, तो पूरा तत्त्व चला । वह कहते थे कि तत्त्व ऐसा ही है।
अच्छा यह बताओ वैराग्य गृहस्थ को होता है, कि मुनि को? जब गृहस्थ वैरागी होगा तभी मुनि बनेगा। पर ध्यान रखना, मुनि बनने के बाद वैराग्य को निकाल मत देना । गृहस्थ का वैराग्य मुनि बनने के लिए होता है और मुनि का वैराग्य मुनि-अवस्था को सुरक्षित रखने के लिए होता है। जब इस ग्रंथ की गाथा इतनी गहरी है, फिर टीका कितनी गहरी होंगी?
पज्जयमूढ़ा का अर्थ = द्रव्य, गुण, पर्याय को समझना पज्जयमूढता नहीं है । मैं कहता हूँ कि मैं मनुष्य पर्याय में हूँ तो बोल दो पज्जयमूढा ? ज्ञान का अर्थ मूढ़ता नहीं है। दर्शनमोह में लीन होना मूढता है । परभाव को निजभाव स्वीकार लेना मूढ़ता है। परभाव को परभावरूप जानना, निजभाव को निजभाव रूप जानना यह ज्ञानगुण का विषय है, लेकिन मूढ़ता नहीं है । अब कोई कहे कि ''पज्जयमूढा ही परसमया', तो पूछना -शुक्ल ध्यान का विषय बताइये । अर्थसंक्रान्ति, व्यंजन संक्रान्ति, योग संक्रान्ति, द्रव्य संक्रमण, गुणसंक्रमण पर्याय सक्रमण ये सब चलता है और तत्त्व को जानना मूढता हो जायेगी, तो लोकसंस्थानविचय धर्म्यध्यान में लोक के आकार प्रकार का ध्यान करना होता है। लोक में स्थित नाना द्रव्यों के गुण पर्याय का भी चिंतवन होता है। द्रव्य का ज्ञान पर्याय मूढ़ता नहीं समझना, अन्यथा लोकविचय धर्म्यध्यान का अभाव हो जायेगा।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहने वाले हैं टीका में जो व्यवहार का लोप करता है, वह व्यवहारतीर्थ का शत्रु है । जो निश्चय का लोप करता है, वह निश्चयतीर्थ का शत्रु है । व्यवहार का अभाव है, तो मंदिर क्यों? धर्मशाला क्यों ? आयतन क्यों? शिविर क्यों? ग्रंथालय क्यों? ये सब व्यवहार हैं । व्यवहार के बिना निश्चय प्राप्त होता नहीं, परन्तु व्यवहार कभी निश्चय होता नहीं यह निश्चय जानो। हे ज्ञानी ! परमभाव सप्तम गुण स्थान में होता है जब निज में निज गूंजेगा, "आत्म स्वभावं परभाव भिन्नं' ये शब्दों में नहीं रहेगा | तो आत्मस्वभाव को परभाव से भिन्न स्वीकारना।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ।। भूमिका के अनुसार कथन करना, यह वक्ता का लक्षण है। अगर नहीं करता है, तो श्रोता भ्रमित हो जाता है। परन्तु आगम के कठिन शब्दों का ही व्याख्यान करना चाहिए। कठिन शब्दों का व्याख्यान करके, फिर उन्हें सरल भाषा में समझाना चाहिए । पूर्व से ही सरल भाषा का प्रयोग कर दोगे, तो श्रोता तत्त्व को सामान्य समझेंगे । इसलिए कठिन विषय से ही शुरू होना चाहिए। क्योंकि लोक की यह सामान्य नीति है।
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