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________________ समय देशना - हिन्दी १७१ सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभाव दरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे हिदाभावे ॥१२ स.सा.।। जो दर्शन ज्ञान-चारित्र की पूर्णता को प्राप्त है, जिन्होंने रत्नत्रय की ओर अपने कदम बढ़ा दिये हैं , व्यवहार रत्नत्रय से पूर्ण होकर निश्चय रत्नत्रय की ओर है, उनसे यही कहो, कि तुम कब तक क्रिया में लीन रहोगे। ये पूजा, ये पाठ, ये प्रभावना यह तेरा काम नहीं है । इनसे ऊपर चलो, यह चंचलता तो योगों की है । परावलम्बी धर्म है । हे योगीश्वर ! यह सब तो भव के अभिनंदन के साधन हैं । भवातीत होना है तो इन क्रियाओं से अतीत हो जाओ। पर जिनका पूजा में ही मन न लगता हो, भगवान् के दर्शन करना ही न जानते हों, उनसे ऐसा नहीं कहना। उनसे यही कहना कि जैसे- वज्रपात के गिरने से पर्वत चूर-चूर हो जाता है। वैसे ही जिनेन्द्र भगवान् की वंदना करने से पाप चूर-चूर हो जाते हैं। एक वीतराग भगवान को देखने मात्र से पाप रूपी जो हस्ती था, वह क्षत-विक्षत हो जाता है। इसलिए आप अरहंत की वंदना करो। जो अपरमार्थ में स्थित है, उनसे कहना कि पूजन करो, भक्ति करो, जाप करो । परन्तु जो परमार्थ में स्थित हो रहे हों, उनसे कहना कि आत्मा को आत्मा से लीन करो। कब तक करते रहोगे पर की आराधना? कब तक पराधीन रहोगे? मैं ही आराध्य हूँ, मैं ही आराधक हूँ, मैं ही साध्य हूँ, मैं ही साधक हूँ, मैं ही प्रत्यय हूँ, मैं ही प्रत्यय का कार्य हूँ। किससे कहना? जो परमार्थ में स्थित है। राज्यसभा में गणिका (नर्तकी) का नृत्य अच्छा लगता है। उसी राज्यसभा में पट्टमहिषी महारानी का नृत्य अच्छा नहीं लगता। पट्टमहिषी आकर राज्यसभा में नृत्य करे, और गणिका से सुन्दर करे, तब भी शोभा को प्राप्त नहीं होता। संगीतज्ञ संगीत करे, तो शोभा को प्राप्त होता है और यदि साधु संगीत करने लग जाये तो, पट्टमहिषी की तरह, शोभा को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि साधु का हाथ-पर-हाथ रखना शोभा को प्राप्त होता है, कमर पर हाथ रखना शोभा नहीं देता। आप सभी कभी निर्ग्रन्थों को संग्रन्थ की क्रिया में प्रेरित मत करना, भूल किये हो। आप ध्वजा चढ़ा रहे हो, तब साधु से मत कहना कि आप भी हाथ लगा दो। आपके लिए मंगलभूत है, परन्तु उनकी चर्या में अमंगलभूत है। बहुत सारे ऐसे विषय हैं, जो कि श्रावक साधु से कराते हैं। उन्हें ध्यान रखना चाहिए। ये योगी कपड़े की ध्वजा नहीं चढ़ायेंगे, ये रत्नत्रय की ध्वजा चढ़ायेंगे। "सुद्धा सुद्धा देसो'' जो जिस मार्ग पर है, वह उस तोमार्ग का कार्य करे, तो अच्छा है। इसलिए विद्या को जानना इतना कठिन नहीं है, विद्या को विसराना कठिन है। आप वैद्य हैं, आप मुनि बन गये, फिर वैद्यपने को छुपा कर रखना, अन्यथा मुनिपना नहीं पलेगा । महाराज! कल्याण का उपदेश दो। ये कल्याण का उपदेश नहीं है, शरीर का है । कल्याण का उपदेश तो रत्नत्रय धर्म है। आपने एक जड़ी-बूटी बता दी, कि जाओ, सफेद मूसली खा लेना, पुष्ट हो जाओगे। तो वह श्वेत मूसली उखाड़ने जायेगा जिससे अनंत जीवों का घात होगा । हे मुनिराज ! षटकाय जीव न हननते, सब विधि दरबहिंसा टली।' __ मैं यह क्यों सुना रहा हूँ? विद्वान् हैं, इनको नहीं पकड़ता। ये कलम नहीं चलाते, ये जिनवाणी सुनते हैं । जितने भी विद्वान् है, पढ़कर मुस्कराते हैं। इनको समझ में नहीं आता ये 'सुद्धा सुद्धा देसो''। क्या दृष्टि है मुनिराजों के प्रति विद्वानों की-'ये हॉस्पिटल में उपयोग क्यों नहीं लगा रहे, ये विश्वविद्यालय क्यों नहीं खुलवा रहे? इनके हाथ में समाज है, ये जो कहेंगे वह होता है। साधु को कहाँ ले जा रहें? यह निर्ग्रन्थ-मुद्रा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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