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________________ समय देशना - हिन्दी १७२ की वृत्ति है। यदि मैंने डॉक्टर से कह दिया कि जाओ, इसके फोड़े में चीरा लगा दो। हे ज्ञानी ! आपका सिद्धांत कहेगा, महाराज! तड़प रहा था, आपने अच्छा किया। परन्तु माँ जिनवाणी कहेगी बेटे ! यह गृहस्थों के लिए तो अच्छा था, पर आपने अनुमोदना की तो अनंतजीव का घात होगा। इसलिए साधु के कल्पना मत किया करो, इन्हें अपने धर्म में रहने दो। क्योंकि दोनों का धर्म विपरीत हैं। आप वहाँ अपना धर्म स्थापित करते हो । एक प्रसूतिगृह में एक माँ ने संतान को जन्म दिया, बताओ उस हॉस्पिटल को जो खुलवाया है, उसमें कितनी हिंसा होगी ? इसलिए हमारे यहाँ दो धर्म हैं। यदि दोनों एक होते, तो दो कहने की आवश्यकता क्या थी ? "देशसर्वतोणुमहती' ॥६/२॥त.सू. ॥ अणुव्रत, महाव्रत । हे अणुव्रतियो! आप महाव्रतियों से अपनी बात कराने का चिंतन बिल्कुल न लायें । आज लेखक / विद्वान् जो साधु के सिर पर बैठे लिखना शुरू कर दिये है, वे इस सभा में आयें, बड़े प्रेम से समझा सकता हूँ, वे कहकर जायेंगे, मेरी आकांक्षा करना मिथ्या है । मैंने एक अच्छे विद्वान् को पढ़ा, जिन्होंने ऐसा लिखा । कलम नहीं चलाना चाहिए, प्रज्ञा चलाना चाहिए। 'गणिका का कार्य पट्टमहिषी को शोभा नहीं देता, ये लोकोक्ति है । मेरा तो विचार है कि आपको किसी निर्ग्रन्थ योगी का चित्र देना हो तो हँसते-हँसते का न दें। उनका चित्र तो प्रशान्त दिखे। आपके घर में टँगा हो, बालक को दिखे तो वह सोचे कि हमारे मुनिराज ऐसे होते हैं। मुस्कराते चित्र एक्टर के भी मिल जाते हैं। ये वीतरागता का मार्ग है, इसमें वीतरागता झलकना चाहिए। आपने आधा चित्र महाराज का दे दिया, किसी अजैन बन्धु के हाथ में जायेगा, वह तो कहेगा कि कोई पुरुष है। बिना पिच्छि- कमंडलु के निर्ग्रन्थ मुद्रा कैसे ? बिना पिच्छि कमण्डलु तो अरहंत मात्र ही होते हैं। आप देवगढ़ या खजुराहो जायें, वहां दिगम्बर मुनि के जो भी चित्र हैं, उनके साथ पिच्छि कमण्डलु भी मिलेगा, क्योंकि चित्र है । मुद्रा के अभाव में कागज की कीमत नहीं होती, उसी प्रकार पिच्छि कमण्डलु साधु की मुद्रा है। मैंने विपरीत क्यों कहा ? एक-दूसरे के धर्म का पालन कराना तो सापेक्ष है, पर एक-दूसरे के धर्म का पालन करना विपरीत है। मुनिराज नहीं होंगे, तो आपके अतिथि सत्कार-धर्म कैसे होगा? तो उन्होंने आपके धर्म का पालन करा दिया। और श्रावक नहीं होगा तो मुनिचर्या कैसे होगी ? लेकिन मुनिराज ही चौका लगाने लग जायें तो विपरीत हो गया। जब कोई श्रावक कह जाये, कि हमने चौका लगाया है। आपको देखना है, 'देख लिया हमने, यही देख लिया' इतना कहने मात्र से साधु पहुँच जाये, तब दोष लग सकता है। फिर जो स्वयं बनाने बैठ जायें, वे निर्दोष कैसे होंगे ? इसलिए ध्यान दो, “सुद्धासुद्धा देसो" यह तो व्यवहारिक दृष्टि से कथन है । इसलिए यथार्थ मानना, द्रव्यानुयोग के विषय में द्रव्यानुयोग की भाषा का ही प्रयोग किया जाता है । द्रव्यानुयोग के सिद्धांत पर आप किंचिंत भयभीत होंगे, कि व्यवहार न चला जाये। इस राग में आकर ज्ञानी ! न आप द्रव्यानुयोग को सुरक्षित करोगे, न व्यवहार को सुरक्षित करोगे। "सुद्धासुद्धा देसा" शुद्ध को, परमभाव दर्शी, जो परम निजात्मस्वभाव को देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं, ऐसे वीतरागी योगी के लिए शुद्धनय का उपदेश देना । उनके लिए अशुद्ध का उपदेश देना विपर्यास है। रोटी बन गई, बन के ठण्डी हो गई, खाना चाहिए की गर्म करना चाहिए ? एक शब्द बोलना । रोटी बन गई, ठण्डी हो गई, खा तो लेना चाहिए पर गर्म करके नहीं खाना चाहिए। स्वाद तो आ जायेगा, पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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