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________________ समय देशना - हिन्दी १७० स्वर्गों में सुख है कि नहीं? यदि नहीं है, तो बताओ। नरकों में दुख है कि नहीं? इन्द्रिय-सुख की चरम सीमा है स्वर्ग और वेदना की चरम सीमा है नरक । मध्यलोक में सुख एवं दु:ख मध्यम है। देवों का जो सुख है, वह किसके माध्यम से भोग रहा है ? यह सब उसके कब काम में आयेंगे? जब सुख गुण होगा तब । वेदनीय कर्म के मन्द उदय में इन्द्रिय-सुख भोगता है, तो अरहंतों में सभी इन्द्रियाँ है और वेदनीय कर्म भी है और साता भी है। वहाँ पर भी सुख-दुख हो जायेगा । यहाँ सुधार कर लो। वेदनीय का काम भोगना ही नहीं है, वेदन भी कराना है। मोहनीय का काम भोग गृद्धता से कराना है।। ज्ञानी ! यह पेन है। यह आपको जानने में आ रहा है, कि ऐसा है । वेदन भी आप कर रहे हैं, लेकिन आपको इसके बारे में सुख-दुख नहीं हो रहा । क्यों नहीं हो रहा ? क्योंकि मेरे हाथ में है। यदि आपको दे दूँ और इतने में दूसरा आपसे ले जाये, तो दु:ख देना शुरू हो गया। क्यों हो गया ? इतने क्षण में आपने पेन में राग कर लिया और समझो, आपकी धर्मपत्नी किसी की पुत्री थी और आप अपरिचित थे, उसके सिर में दर्द हो रहा था, तो आप किसी डॉक्टर को बुलाने नहीं गये, आपको उसका कोई टेंशन नहीं था। पर जब से सात फेरे लिए, तब से उसके सुख-दुख की चिंता हो गई। क्यों? क्योंकि सात फेरों में आपने मोह बाँध लिया था । सिद्धांत देखो। यदि आप ऐसा कहोगे, कि साता-असाता से वेदन कर रहा हूँ। इसलिए पहले ऐसा कहिए, मोहनीय के कारण साता-असाता का वेदन हो रहा है । (मोहनीय नहीं मानोगे तो केवली भगवान भी इच्छापूर्वक सुख-दु:ख का वेदन शुरु कर देंगे) "एकादश जिने" जो हमारे दूसरे भिन्न भाई हैं, वह साताअसाता का उदय मानकर कवलाहार कराते हैं। यही प्रकरण है। पर हम किस बात से निराकरण करते हैं? मोहनीय के अभाव से ही हम केवली को कवलाहारी नहीं मानते हैं। इसके उत्तर में 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' में आचार्य प्रभाचन्द्र स्वामी ने केवली भुक्ति, स्त्री मुक्ति का खण्डन किया है। मोहनीय राजा चला जाये, तो शेष कर्म अपने आप चले जायेंगे। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ gaa 'मिथ्यादृष्टि' की प्ररूपणा के उपरान्त यह समझा रहे हैं। क्या सभी जीवों को सामान्य उपदेश देना चाहिए? नहीं। जो जिसकी योग्यता है, उसको वैसा उपदेश दीजिए। योग्यता के अभाव में उत्कृष्ट उपदेश भी विफल हो जायेगा । और उत्कृष्ट की योग्यता है, यदि उसे हीन उपदेश दोगे तो उसकी वंचना होगी? प्रवक्ता ने योग्यता को नापे बिना ही कथन प्रारंभ किया और जो योग्यता सम्पन्न थे, उनके सामने सामान्य विषय का व्याख्यान किया, तब यह तो उन श्रोताओं के समय का ही नाश किया । लघु प्रज्ञावन्त लोग थे, उनको बहुत कठिन उपदेश दे दिया, तब भी आपने उनकी प्रज्ञा के साथ छल किया। इसलिए हमारे आचार्यों ने स्पष्ट कह दिया, कि आर्य को आर्य की भाषा में समझायें और म्लेच्छ को म्लेच्छ की भाषा में। ध्यान रखना भाषा में ही समझाये, भाव दोनों का एक ही होना चाहिए, नहीं तो काम बिगड़ जायेगा । जो जैसा सुनना चाहता है, उसे वैसा नहीं सुनावें । जो सत्य तत्त्व है, वही कहना । हाँ, भाषा सरल कर दो, अन्यथा अभक्ष्यसेवी अभक्ष्य की पुष्टि चाहता है, चोरी करनेवाला चोरी की पुष्टि चाहता है। वह पोषण नहीं करना । लेकिन इतनी सुगम भाषा में समझा देना, जिससे कि उसको समझ में आ जाये । आगे बारहवीं गाथा में आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं। जिसकी जैसी योग्यता है, उसे वैसा कथन करो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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