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________________ समय देशना - हिन्दी १६३ श्रेष्ठ साधक, श्रेष्ठ सामायिक, श्रेष्ठ कायोत्सर्ग, प्रथम "उत्थितो-उत्थित । जो तन से भी खड़ा है, और अंदर से भी खड़ा है। सामायिक में यह श्रेष्ठ साधना है। दूसरा है "उत्थितो उपविष्ट" तन से खड़ा है परन्तु भीतर से विकल्प चल रहा है कि मैं सामायिक कर रहा हूँ, कोई देख रहा है कि नहीं? ज्यादा भीड़ देख रही है तो एक पैर पर खड़ा हो गया। और कोई फोटो खींचने आ गया, तो और सावधान होकर खड़ा हो गया । वह खड़ा होने पर भी बैठा है। किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो वह बैठा है, या लेटा है, परन्तु भावों से खड़ा है तो यह उपविष्ट उत्थित है। तन से बैठा है, परन्तु मन से खड़ा है। और चतुर्थ उपविष्ट-उपविष्ट तन से भी बैठा, मन से भी बैठा, मन भी नहीं लग रहा और तन से भी सामायिक नहीं कर रहा। सबसे हीन कोई है तो उपविष्ट-उपविष्ट है। ये भंग क्यों सुना रहा हूँ ? किसी अस्वस्थ को तुम बैठा मत देना । तन से बैठा दिया, तो मन में संक्लेशता बढ़ी। इसलिए तन से भी बैठा मत देना। ये तो समयसार है। तन को नदी या समुद्र में भी पटका गया था, पर मन को कहाँ डुबाया समुद्र में? वे तो सिद्ध हो गये । समुद्रसिद्ध, नदीसिद्ध, जलसिद्ध, स्थल सिद्ध, नभसिद्ध 'तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने वर्णन किया है। कोई पूर्वभव का बैरी आया और मुनिराज को उठाकर नदी या समुद्र में पटक दिया। इधर वह पटक रहा था, उधर उनका शुक्ल ध्यान चला, क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हुआ और कैवल्य को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त कर लिया, ये जलसिद्ध हैं। सबसे ज्यादा पुरुषार्थ है मन को स्थिर करना । उत्कृष्ट साधना है खड़े होकर | चौबीस तीर्थंकर में मात्र तीन तीर्थंकर पद्मासन से मोक्ष गये हैं। पर बहुत अच्छा हुआ जो कि वे चले गये, नहीं तो किसी को पंचमकाल के लोग बैठकर साधना करने ही नहीं देते। संहनन पहला ही चाहिए निर्वाण पाने के लिए। किसी भी संस्थान से मोक्ष होता है, पर संहनन वजवृषभ नाराच ही होता है। भगवान्-आदिनाथ, वासुपूज्य, नेमिनाथ पद्मासन से निर्वाण को प्राप्त हुए, शेष तीर्थंकर कायोत्सर्ग खड़े होकर ही निर्वाण को प्राप्त हुए । खड़े होकर साधना करना उत्कृष्ठ साधना है। शक्ति के अनुसार साधना करना चाहिए, खींचना नहीं चाहिए। कायोत्सर्ग यानी जिनमुद्रा, आपके दोनों हाथ जंघा तक जाना चाहिए। तीन भगवानों की उत्कृष्ट साधना नहीं थी, पर नियोग ऐसा बना कि उस मुद्रा में ही निर्वाण हो गया, उठने-बैठने को उत्कृष्ट-जघन्य साधना नहीं कहना । उत्कृष्ट कायोत्सर्ग है उत्थितउत्थित । परन्तु परिणामों की दशा है। "प्रमाद: कुशलेष्वनादरा: ।" (सर्वार्थ सिद्धि) कुशल क्रियाओं में अनादर करने का नाम 'प्रमाद है। और कुशल क्या है ? पुण्य ही कुशल है, और पाप ही अकुशल है । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कितनी सुंदर बात कही । जो योगी आत्मभावना में लीन होकर और नित्य ही तद्उपयोगमय है, वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, इस बात का कथन किया है। आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी की टीका है, उसका व्याख्यान जयसेन स्वामी कर रहे हैं । भूतार्थ क्या है? व्यवहारनय असत्यार्थ होता है। संभलकर सुनना। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने परमार्थदृष्टि से ही असत्यार्थ कहा, पर आचार्य जयसेन स्वामी कह रहे हैं, कि सत्यार्थ भी है, असत्यार्थ भी है । भूतार्थ को सत्यार्थ कहा है शुद्ध निश्चयनय से । व्यवहारनय से सम्यग्दृष्टि होता है, कि निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है ? भूतार्थ से कि अभूतार्थ से? भूतार्थ निश्चय का आश्रय लेता है। यह आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की टीका का व्याख्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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